उनका मानना है कि रोजा सिर्फ उपवास का महीना नहीं, बल्कि यह आत्म-संयम और अनुशासन का प्रतीक है. वे इसे एक आध्यात्मिक सफर मानते हैं, जो धर्म से परे एकता को दर्शाता है.
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बिना सहरी के रखते हैं रोजा
विद्याधरन अन्य रोजेदारों की तरह सहरी नहीं करते, यानी वे सुबह से बिना कुछ खाए-पीए शाम तक उपवास रखते हैं. वे खजूर, फल और शाकाहारी भोजन से इफ्तार करते हैं.
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1992 से लगातार रख रहे हैं रोजा
विद्याधरन ने 1992 में पहली बार रमजान के दौरान 30 दिन का रोजा रखा और तब से यह सिलसिला अभी तक जारी है. वे चांद दिखने का इंतजार नहीं करते, बल्कि हर साल पूरे 30 दिन उपवास रखते हैं.
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समाज सेवा में भी आगे
रोजा रखने के अलावा वे ग्लोबल प्रवासी यूनियन और अन्य भारतीय संगठनों के माध्यम से इफ्तार वितरण कार्यक्रमों में भी भाग लेते हैं. साथ ही, वे प्रवासियों के शवों को उनके देश वापस भेजने के काम में भी मदद करते हैं.
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समानता को बढ़ावा
कई लोगों का मानना है कि अगर लोग एक-दूसरे की परंपराओं और भावनाओं का सम्मान करें, तो समाज में शांति और भाईचारा बना रह सकता है.
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रमजान से मिली अनुशासन और आत्म-संयम की सीख
रोजा रखने से अनुशासन और आत्म-संयम की भावना विकसित होती है, जिससे जीवन में सकारात्मक बदलाव आता है.
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दिल मिलना चाहिए, धर्म नहीं'
विद्याधरन की कहानी धार्मिक परिवर्तन और सामाजिक सौहार्द का सबसे अच्छा उदाहरण है. वे यह साबित करते हैं कि धर्म से ऊपर इंसानियत और भाईचारे की भावना होती है.