Teachers Day 2024: कभी सूखे से थी पहचान, अब लहलहाती है 'टीचर की फसल'; 3000 की आबादी वाले गांव में 300 शिक्षक
Teachers Day 2024: शिक्षक दिवस के मौके पर आज बात महाराष्ट्र के एक ऐसे गांव की जो कभी सूखे की मार झेलता था, सूखे के लिए जाना जाता था. लेकिन आज गांव में हर परिवार में कम से कम एक टीचर है. यानी सूखे की मार झेलने वाले गांव में अब टीचर की फसल लहलहा रही है. इस गांव को अब शिक्षकों के गांव के रूप में जाना जाता है.
Teachers Day 2024: मधुरा कुंजिर ने 2022 में संयुक्त रक्षा सेवा (CDS) परीक्षा पास करके 11वीं रैंक हासिल की और चर्चा में आईं. वे अब असम में सेवारत हैं. उनके माता और पिता दोनों टीचर हैं. मधुरा महाराष्ट्र के कोल्हापुर के पुरंदर तहसील के वाघापुर नाम की एक छोटे से गांव की रहने वाली हैं.
मधुरा के पिता संतोष कुंजिर कहते हैं कि दो शिक्षकों की बेटी होने के नाते मधुरा में अनुशासन की एक खास भावना है. मेरे अंदर भी यही अनुशासन था, क्योंकि मेरे माता-पिता दोनों ही शिक्षक हैं. परिवार में कुल आठ सदस्य शिक्षक हैं. लेकिन ये किसी के लिए भी आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि मेरे ज़्यादातर पड़ोसी भी शिक्षक हैं.
वाघापुर एक ऐसा गांव है जिसकी आबादी करीब 3,000 है, जहां आज 300 शिक्षक हैं. गांव वाले गर्व से सबको बताते हैं कि हर परिवार में कम से कम एक शिक्षक है. वे वाघापुर और आस-पास के गांवों जैसे दौंड, भोर, वेल्हा, हवेली, सासवड़ आदि में कार्यरत हैं. ये सब 1970 के दशक में शुरू हुआ था.
गांव कभी सूखे से था परेशान, गांववालों को खाने के लिए करना पड़ता था संघर्ष
सूखाग्रस्त क्षेत्र होने के कारण, वाघापुर के गांव के लोगों को खाने की व्यवस्था करने में भी कठिनाई होती थी. 78 साल की इंदुबाई कुंजिर परिवार को पालने के लिए 2 किलोमीटर पैदल चलकर खदान में काम करने जाती थीं. ऐसी ही परिस्थितियों में एक दिन घर लौटते समय, इंदुबाई ने एक झोपड़ी में शरण ली और उन्होंने अपने बेटे संजय को जन्म दिया.
उन्होंने कहा कि ये सचमुच बहुत कठिन समय था. उस वक्त की यादें अभी भी हमें परेशान करती हैं. आज 51 साल के संजय टीचर के रूप में काम करते हैं. उन्होंने कहा कि भले ही मेरे माता-पिता शिक्षित नहीं थे और उनके पास बहुत कम संसाधन थे, फिर भी उन्होंने सुनिश्चित किया कि हमारी शिक्षा प्रभावित न हो और मैं इसके लिए हमेशा उनका आभारी रहूंगा.
इंदुबाई ने केवल दूसरी कक्षा तक पढ़ाई की थी और उसके बाद पढ़ाई छोड़ दी थी, जैसा कि उनकी पीढ़ी के अधिकांश लोगों के साथ हुआ था. गांव की वह पीढ़ी अशिक्षित होने के कारण ज्यादातर रेलवे और बांध निर्माण स्थलों पर दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करती थी. रेलवे निर्माण स्थलों पर करीब 70 से 80 ग्रामीण काम कर रहे थे.
आखिर कैसे वाघापुर बना टीचरों का गांव?
रिटायर्ड टीचर अशोक जगन्नाथ कुंजिर बताते हैं कि कैसे वाघापुर गांव शिक्षकों का गांव बन गया. वे कहते हैं कि पुरंदर करहा नदी के किनारे दो भागों में बंटा हुआ है. हमारे हिस्से के गांव में 1892 तक कोई स्कूल नहीं था. 9 मार्च 1892 को पहला प्राइमरी स्कूल खोला गया. आस-पास के गांवों से भी छात्र यहां पढ़ाई के लिए आने लगे. इस तरह पहली बार इस गांव में शिक्षक आए.
अशोक ने 7वीं कक्षा पास करने के बाद दो साल तक ट्रेनिंग ली और प्राइमरी लेवल पर पढ़ाना शुरू किया. उन्होंने बताया कि उस समय सरकार शिक्षा का प्रसार करना चाहती थी, इसलिए वे सातवीं कक्षा पास करने वाले छात्रों को ट्रेंड करके प्राइमरी लेवल पर पढ़ाने के लिए कहते थे.
लेकिन गांव में अभी भी हाई स्कूल नहीं था और शिक्षकों को एक हाई स्कूल की स्थापना की आवश्यकता महसूस हुई. लोगों ने मिलकर 1961 में एक हाई स्कूल की स्थापना की. उसके बाद फिर से यहां के छात्रों ने अच्छे अंक प्राप्त करना शुरू कर दिया और डिप्लोमा इन एजुकेशन के कोर्सेज में एडमिशन लेना शुरू कर दिया. प्रत्येक बैच से गांव में कम से कम 10 से 15 टीचर निकलते थे, इस तरह संख्या बढ़ती गई.
रेलवे कर्मचारियों की ओर से 40 रुपये हर महीने के योगदान से बना था हाई स्कूल
हाई स्कूल की स्थापना रेलवे कर्मचारियों की ओर से 40 रुपये प्रति माह के योगदान, शिक्षकों और ग्रामीणों की ओर से की गई अन्य योगदान से की गई थी. विश्वास कुंजिर नाम के एक निवासी ने हाई स्कूल के लिए जमीन दान की थी. आज गांव में एक प्राइमरी स्कूल, एक हाई स्कूल और एक प्राइवेट इंग्लिश मिडियम स्कूल है.
गांव के लोग 1980 के दशक के उस दौर को याद करते हैं, जब गांव में 100 प्रतिशत नतीजे आते थे. छात्र सुबह की प्रार्थना से पहले स्कूल में और स्कूल के बाद रात में पेड़ के नीचे बैठकर चौबीसों घंटे पढ़ाई करते थे. इसी अनुशासन के कारण आज की पीढ़ी ने मधुरा जैसे कई क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाई है. कुछ लोग सिविल सेवा में काम कर रहे हैं, कुछ डॉक्टर हैं, कुछ विदेश में रिसर्च कर रहे हैं. संजय कहते हैं कि जो बच्चे मुश्किल हालात में पैदा होते हैं, उनके अंदर एक अलग तरह की आग होती है.
संतोष ने पुणे में शिक्षा में डिप्लोमा किया. ये गांव के छात्रों की पहली पसंद थी. संतोष के पिता ने भी उसी कॉलेज से डिप्लोमा किया था. संतोष एक किस्सा शेयर करते हुए कहते हैं कि चूंकि वाघापुर से बहुत सारे छात्र शिक्षा में डिप्लोमा की पढ़ाई करने के लिए पुणे में रहते थे, इसलिए हर रोज़ राज्य परिवहन बस से हमारे माता-पिता हमें टिफिन भेजते थे जिन्हें हम स्वर्गेट बस स्टैंड से लेते थे. वे याद करते हैं कि उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए किस तरह का समर्थन मिला.
जैसे-जैसे गांव में साक्षरता बढ़ती गई, इंदुबाई ने भी 60 साल की उम्र में पढ़ना सीख लिया और अब वह अपना समय सभी धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने में बिताती हैं. लेकिन अब यह परंपरा खत्म होती जा रही है, शिक्षकों की भर्ती कम हो रही है और छात्रों को करियर के और विकल्प तलाशने का मौका मिल रहा है.