Voters INK: वोटिंग में इस्तेमाल होने वाली स्याही कहां बनती है, कैसे बनती है?

Voters INK:देश में चुनाव के दौरान एक अलग तरह की स्याही का उपयोग किया जाता है. ये अमिट होता है ये कब बनी और इसे किसने बनाया? आइए जानें इसका इतिहास.

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Priyank Bajpai
 

Voters INK: होली का रंग तो आप लोग छुड़ा चुके हैं, लेकिन एक ऐसा भी रंग है जो आपके जब लगता है तो महीनों नहीं छूटता है. जब आप मतदान करने जाते हैं, तो आपकी उंगली पर एक खास तरह की स्याही यानि इंक लगाई जाती है. जो कई दिन तक मिटाए नहीं मिटती है. क्या आप जानते हैं कि ये स्याही कहां बनती है, कैसे बनती है और इसका क्या इतिहास है? इसे कोई भी बना सकता है ? 

हमारे देश में साल 1951-52 में पहली बार चुनाव हुए थे. उस चुनाव में कई लोगों ने किसी अन्य व्यक्ति के स्थान पर वोट डाल दिया तो कईयो ने एक से अधिक बार मतदान का प्रयोग किया .चुनाव आयोग के पास जब इस तरह की शिकायतें आईं, तो उसने इसका समाधान निकालने के विकल्पों पर विचार किया. चुनाव आयोग ने सोचा कि क्यों ना मतदाता की उंगली पर एक निशान बनाया जाए, जिससे ये पता लग सके कि वो वोट डाल चुका है. इसमें मुश्किल ये थी कि जिस स्याही का निशान बनाया जाए, वो अमिट होनी चाहिए. चुनाव आयोग ने इसके लिए नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी ऑफ इंडिया से संपर्क किया. इसके बाद एनपीएल ने ऐसी अमिट स्याही तैयार की, जिसे ना तो पानी से और ना ही किसी केमिकल से हटाया जा सकता 

आप चौकेंगे ये जानकर कि अमिट स्याही बनाने वाली कंपनी एमपीवीएल का इतिहास वाडियार राजवंश से जुड़ा है. इस राजवंश के पास खुद की सोने की खान थी...ये राजवंश दुनिया के सबसे अमीर राजघरानों में गिना जाता था. कर्नाटक के मैसूर में वाडियार राजवंश का राज था. महाराजा कृष्णराज वाडियार आजादी से पहले यहां के शासक थे. वाडियार ने साल 1937 में पेंट और वार्निश की एक फैक्ट्री खोली, जिसका नाम मैसूर लैक एंड पेंट्स रखा. देश के आजाद होने पर ये फैक्ट्री कर्नाटक सरकार के पास चली गई. इसके बाद साल 1989 में इस फैक्ट्री का नाम मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड रख दिया गया .इसी फैक्ट्री को एनपीएल ने अमिट स्याही बनाने का ऑर्डर दिया था. ये फैक्ट्री आज तक इस तरह की अमिट स्याही बना रही है. 

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