Household Consumption Expenditure Survey: क्या सही है महंगाई का आंकड़ा? घरेलू खर्च सर्वे के 5 जवाब जो करते हैं हैरान

Household Consumption Expenditure Survey: भारतीय अर्थव्यवस्था में पिछले कुछ दशकों में तेजी से बदलाव हुए हैं, जिसका असर खासकर खाद्य पदार्थों पर खर्च और लोगों की खाने की आदतों पर पड़ा है. यह आर्टिकल इन बदलावों पर आधारित है और यह दिखाती है कि कैसे भारतीय अब कम खाना खा रहे हैं, लेकिन बेहतर और अधिक पौष्टिक चीजें खा रहे हैं साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालती है कि विभिन्न राज्यों में खर्च के पैटर्न में क्या अंतर हैं.

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Household Consumption Expenditure Survey: खाने पर खर्च कम हुआ तो इसका सीधा मतलब है कि आपके पास बाकी चीजों पर खर्च करने के लिए ज्यादा पैसे बचते हैं. चाहे वो टीवी हो, फ्रिज हो, नए कपड़े हों, गाड़ी का पेट्रोल या फिर घूमने-फिरने का खर्च. दूसरे शब्दों में कहें तो आपकी ख्वाहिशें अब और बड़ी हो सकती हैं. बीते 20 सालों में भारत में खाने पर होने वाले खर्च में काफी कमी आई है. देशभर के आंकड़ों को देखें तो 1999-2000 में ग्रामीण और शहरी दोनों घरों में खाने पर होने वाला खर्च कुल खर्च का 50% से भी ज्यादा था लेकिन 2022-23 के आंकड़ों के मुताबिक, पहली बार ग्रामीण इलाकों में खाने पर खर्च कुल खर्च का 50% से नीचे चला गया है, वहीं शहरों में यह 40% से भी कम हो गया है. ये काफी बड़ा बदलाव है.

1999-2000 में ग्रामीण इलाकों में खाने पर खर्च 59.4% हुआ करता था, जो 2011-12 तक 50% के आसपास बना रहा. लेकिन 2022-23 में यह घटकर 46.38% रह गया है. शहरों में 1999-2000 में खाने पर प्रति व्यक्ति औसत खर्च 48.06% हुआ करता था, जो 2022-23 में घटकर 39.17% रह गया है.

2 दशक में बदली खाने की आदतें

सिर्फ खाने पर खर्च कम होना ही नहीं बल्कि खाने की आदतों में भी बदलाव आया है. अब लोग सिर्फ अनाज (चावल, गेहूं आदि) से ज्यादा पौष्टिक चीजों पर खर्च कर रहे हैं. 1999-2000 में ग्रामीण घरों में अनाज पर खर्च कुल खर्च का 22% हुआ करता था, जो अब घटकर 4.91% रह गया है. शहरों में यह 12% से घटकर 3.64% हो गया है.

अंडे, मछली, मांस और फल-सब्जियों जैसे पौष्टिक चीजों पर खर्च ग्रामीण इलाकों में शहरों के मुकाबले ज्यादा बढ़ा है. 1999-2000 में ग्रामीण घर इन चीजों पर कुल खर्च का 11.21% खर्च करते थे, वहीं शहरों में यह 10.68% था. 2022-23 में ग्रामीण इलाकों में यह खर्च बढ़कर 14% हो गया है, जबकि शहरों में मामूली बढ़ोत्तरी के साथ 11.17% है.

क्या महंगाई का आंकड़ा सही है?

सरकार महंगाई का आंकड़ा जरूरी चीजों के दाम बढ़ने के आधार पर निकालती है. मगर जरूरी है कि ये चीजें वो हों जो हम आम आदमी इस्तेमाल करते हैं. शहर और गांव में रहने वाले लोगों की जरूरतें अलग-अलग हो सकती हैं. इसलिए महंगाई का सही आंकड़ा निकालने के लिए जरूरी है कि चीजों की लिस्ट शहर और गांव के हिसाब से बने.

फिलहाल महंगाई का आंकड़ा (कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स या सीपीआई) 2012 में तय की गई लिस्ट के आधार पर निकाला जाता है. लेकिन बीते 11 सालों में जैसा कि हालिया घरेलू खर्च सर्वेक्षण (2022-23) से पता चलता है, बहुत कुछ बदल चुका है.

उदाहरण के लिए, सीपीआई (ग्रामीण) की लिस्ट में अनाज और उत्पादों को 12.35% का वेटेज दिया गया है. लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया है, ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक ग्रामीण घर अनाज (और अनाज के विकल्प) पर सिर्फ 4.91% खर्च करते हैं. इसी तरह शहरों में भी खाने पर खर्च का आंकड़ा सीपीआई में बताए गए आंकड़े से थोड़ा ज्यादा है. शहरी घर खाने पर 39.17% खर्च करते हैं, जबकि सीपीआई में खाना का वेटेज 36.29% है.

शहर और गांव के खर्चे में है काफी अंतर

सरकार चाहे जो भी महंगाई का आंकड़ा बताए, असली तस्वीर तो हम आम आदमी ही जानते हैं. सरकार की ओर से दिए गए आंकड़ों पर गौर करें तो साफ पता चलता है कि अलग-अलग राज्यों में खर्च का अंतर कितना ज्यादा है. उदाहरण के लिए, अरुणाचल प्रदेश में रहने वाले एक ग्रामीण हर महीने औसतन 5276 रुपये खर्च करता है, जबकि शहरी इलाकों में रहने वाले को 8636 रुपये खर्च करने पड़ते हैं. यानी शहर और गांव के बीच का अंतर करीब 3360 रुपये का है! उसी तरह अगर हम छत्तीसगढ़ को देखें तो वहां गांव में रहने वाले को 2466 रुपये खर्च करने पड़ते हैं, जबकि शहर में रहने वाला 4483 रुपये खर्च करता है. अंतर करीब 2000 रुपये से ज्यादा है.

ये अंतर सिर्फ पूर्वोत्तर और मध्य भारत के राज्यों में ही नहीं है. बल्कि देश के हर कोने में मौजूद है. हरियाणा में गांव-शहर का अंतर 3000 रुपये से ज्यादा है, तो कर्नाटक में भी यही हाल है. यहां तक कि केरल जैसे राज्य में भी, जहां ग्रामीण और शहरी जीवन स्तर में कम अंतर माना जाता है, वहां भी करीब 1150 रुपये का फर्क है.

क्या आंकड़ों में नजर आती है महंगाई की सही तस्वीर

तो क्या महंगाई का आंकड़ा हमें सही तस्वीर दिखा रहा है? शायद नहीं. हो सकता है कि हमारी जिन्दगी में कुछ चीजें सचमुच सस्ती हो रही हों, लेकिन कुछ चीजें इतनी महंगी हो गई हैं कि हमारा बजट बिगड़ जाता है. इसलिए जरूरी है कि महंगाई का आंकड़ा समय-समय पर अपडेट किया जाए और अलग-अलग राज्यों और शहरों के हिसाब से निकाला जाए. साथ ही, ये आंकड़ा सिर्फ सरकारी आंकड़ों पर आधारित नहीं होना चाहिए, बल्कि आम आदमी की जरूरतों और खर्चों को भी ध्यान में रखना चाहिए. तभी सही तस्वीर सामने आएगी और सरकार सही फैसले ले सकेगी. आखिरकार, हमारा मकसद सिर्फ आंकड़ों में सुधार लाना नहीं है, बल्कि हर किसी की जिन्दगी को बेहतर बनाना है. और ये तभी हो सकता है, जब हम सही मायने में समझें कि जमीनी हकीकत क्या है.