कैसे बाराबंकी के एक लड़के ने बदल दिया था ईरान का इतिहास, जानें कौन हैं सैयद अहमद मुसवी और उनका भारत कनेक्शन

Iran Supreme Leader: 1979 की क्रांति में अयातुल्ला खोमैनी का उदय हुआ था. यह क्रांति ईरान के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई, जिसने एक उदार इस्लामिक देश को कट्टर शिया धर्मतंत्रीय राष्ट्र में बदल दिया. लेकिन क्या आप जानते हैं कि खोमैनी के दादा, सैयद अहमद मुसावी हिंदी, उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले से ईरान गए थे? उनकी यह यात्रा ईरान के इतिहास को हमेशा के लिए बदल देने वाली थी.

Iran Supreme Leader: जब रुहोल्लाह खोमैनी ईरान में पले बढ़ रहे थे, तब ईरान एक उदार देश था. उनकी परवरिश अध्यात्मिक वातावरण में हुई और उनका शिया धर्म से गहरा लगाव था, जो उन्हें उनके दादा सैयद अहमद मुसावी हिंदी से विरासत में मिला था. अहमद हिंदी का जन्म बाराबंकी के पास हुआ था.

सन 1830 में अहमद हिंदी भारत छोड़कर ईरान की यात्रा पर निकले. यह यात्रा केवल तीर्थयात्रा के लिए नहीं थी, बल्कि अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए भी थी. वह पहले इराक के नजफ स्थित हजरत अली की दरगाह गए और फिर चार साल बाद ईरान के कौम शहर में बस गए. वहीं उन्होंने अपना घर बसाया और परिवार का पालन-पोषण किया.

अहमद हिंदी ने ईरान में रहते हुए भी अपने भारतीय मूल को नहीं भुलाया. वह जीवन भर "हिंदी" उपनाम से जाने गए और उनकी मृत्यु के बाद उन्हें कर्बला में दफनाया गया. यहाँ तक कि उनके पोते रुहोल्लाह खोमैनी की कई गजलों और कविताओं में "हिंद" शब्द का इस्तेमाल मिलता है.

ईरान में खोमैनी का उदय

अहमद हिंदी का निधन भले ही खोमैनी के जन्म से पहले हो गया था, लेकिन उनकी शिक्षाएँ परिवार के माध्यम से खोमैनी तक पहुँचीं और उनके जीवन को गहराई से प्रभावित किया. खोमैनी बचपन से ही धर्म के प्रति समर्पित थे और धीरे-धीरे वह एक प्रतिष्ठित धर्मगुरु बन गए.

जब ईरान में शाह मोहम्मद रजा पहलवी के शासन में तेजी से आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण हुआ, तो खोमैनी इससे सहमत नहीं थे. उन्हें लगता था कि शाह पश्चिमी ताकतों, खासकर अमेरिका, की कठपुतली है. वह ईरान को धर्मनिरपेक्ष बनाने की नीतियों का विरोध करते थे और चाहते थे कि ईरान वापस इस्लामिक मूल्यों की ओर लौटे.

1960 और 70 के दशक में ईरान में बड़े पैमाने पर उथल-पुथल मची. खोमैनी ने शाह के खिलाफ आवाज उठाना शुरू किया और उन्हें ईरान के धर्मगुरुओं, बुद्धिजीवियों, छात्रों और मजदूर वर्ग का समर्थन मिला. वह इस्लामिक मूल्यों पर वापसी और ईरान को धर्मतंत्रीय राष्ट्र बनाने का आह्वान करते रहे.

1979 की क्रांति और उसका प्रभाव

1978 में ईरान में विरोध प्रदर्शन तेज हो गए. देश में अशांति फैल गई और खोमैनी ने इस मौके का फायदा उठाया. 1979 की क्रांति में शाह को उखाड़ फेंका गया और खोमैनी ईरान के नायक बन गए. ईरान में इस्लामिक गणराज्य की स्थापना हुई और इस्लामिक कानून देश का मार्गदर्शक सिद्धांत बन गया.

ईरान एक उदार देश से रूढ़िवादी समाज में बदल गया. खोमैनी के शासन के दौरान ईरान को आंतरिक और बाहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिनमें इरान-इराक युद्ध, आर्थिक गिरावट, प्रतिबंध और वैश्विक अलगाव शामिल थे. खोमेनी 1989 में अपनी मृत्यु तक 10 वर्षों तक ईरान पर शासन करते रहे.

1979 से पूरी तरह अलग है आज का ईरान

आज का ईरान, 1979 में खोमेनी को विरासत में मिले ईरान से बिल्कुल अलग है. इसमें काफी हद तक खोमेनी के शासन और उनके द्वारा स्थापित व्यवस्था का दखल है. खोमेनी और उनके उत्तराधिकारी, वर्तमान सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खामेनेई, लोहे के मुट्ठी से धार्मिक आधार पर ईरान पर शासन करते रहे. पश्चिम का विरोध एक आम मार्गदर्शक सिद्धांत बन गया, जिसके परिणामस्वरूप ईरान की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल हो गई और देश वैश्विक रूप से अलग-थलग पड़ गया. महिलाओं के अधिकारों का हनन हुआ और सत्ता के विरोध को दबा दिया गया. कोड़े मारना, हाथ काटना, सार्वजनिक रूप से पत्थरबाजी (संगसार) जैसी सजाएं आम हो गईं.

हालांकि इस्लामी गणराज्य क्षेत्रीय और वैश्विक भू-राजनीति में एक प्रमुख खिलाड़ी बन गया, लेकिन ईरान में महंगाई और बेरोजगारी की आर्थिक चुनौतियों को भी अयातुल्लाओं के कुशासन का नतीजा माना जाता है. ईरान के राष्ट्रपति रईसी की मौत पर ईरानियों द्वारा जश्न मनाए जाने से खोमेनी द्वारा स्थापित कट्टरपंथी शासन के लिए दबे गुस्से और घृणा का पता चलता है.

खोमेनी की विरासत बहस का विषय है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस पक्ष में हैं. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ईरान और ईरानियों पर उनका और उनकी अटूट नीतियों का कितना प्रभाव पड़ा है. साथ ही, यह भी निर्विवाद है कि कैसे बाराबंकी के एक लड़के ने ईरान के इतिहास की धारा को मोड़ने में भूमिका निभाई.