अमेरिकी संस्कृति और शिक्षा प्रणाली पर चर्चा अक्सर होती रहती है, लेकिन हाल ही में एक नई बहस ने जोर पकड़ा है. अमेरिकी उद्यमी और पूर्व राष्ट्रपति उम्मीदवार विवेक रामास्वामी ने अमेरिकी संस्कृति को लेकर एक कठोर बयान दिया है. उनका मानना है कि अमेरिकी माता-पिता अपने बच्चों को जिस तरह से पालते-पोस्ते हैं, वह सही नहीं है और इसके कारण अमेरिका के युवा तकनीकी क्षेत्रों में उत्कृष्टता हासिल करने में पीछे रह जाते हैं.
रामास्वामी का यह बयान उस समय आया जब अमेरिकी वीजा नीतियों और भारतीय तकनीकी कर्मचारियों की भर्ती पर चर्चा तेज़ हो गई थी. उन्होंने कहा कि अमेरिकी कंपनियां विदेशी-निर्मित और पहली पीढ़ी के इंजीनियरों को इसलिए नियुक्त करती हैं क्योंकि अमेरिकी संस्कृति में उत्कृष्टता की बजाय औसत दर्जे को अधिक महत्व दिया जाता है.
संस्कृति में बदलाव की जरूरत
रामास्वामी ने अपनी टिप्पणी में यह स्पष्ट किया कि शीर्ष तकनीकी कंपनियों के लिए भारतीय और अन्य विदेशी इंजीनियरों को भर्ती करने का कारण यह नहीं है कि अमेरिकी युवाओं में कोई बौद्धिक कमी है. उनका कहना था कि यह समस्या अमेरिका के 'मूल' युवाओं की प्रतिभा में नहीं, बल्कि संस्कृति में निहित है. उनका मानना था कि अमेरिकी समाज ने औसत दर्जे को बढ़ावा दिया है, जो युवाओं को उत्कृष्टता की ओर प्रेरित नहीं करता.
रामास्वामी ने एक ट्वीट में कहा, “अगर हम वास्तव में इस समस्या को हल करने के बारे में गंभीर हैं, तो हमें सच का सामना करना होगा: हमारी संस्कृति ने पिछले कई दशकों में औसत दर्जे को सर्वोच्च मान्यता दी है, जो कि अब तक कायम है. यह समस्या कॉलेज से नहीं शुरू होती, बल्कि बचपन से शुरू होती है.”
The reason top tech companies often hire foreign-born & first-generation engineers over “native” Americans isn’t because of an innate American IQ deficit (a lazy & wrong explanation). A key part of it comes down to the c-word: culture. Tough questions demand tough answers & if…
— Vivek Ramaswamy (@VivekGRamaswamy) December 26, 2024
अमेरिकी संस्कृति में औसत दर्जे का जश्न
रामास्वामी के अनुसार, अमेरिकी समाज में जो लोग औसत दर्जे की उपलब्धियों को अधिक महत्व देते हैं, वे कभी भी दुनिया के सबसे बेहतरीन तकनीकी विशेषज्ञ नहीं बना सकते. उन्होंने उदाहरण के तौर पर कहा कि अमेरिका में स्कूलों और फिल्मों में अक्सर वह छात्र या पात्र चमकते हैं जो औसत होते हैं, जैसे कि “बॉय मीट्स वर्ल्ड” के कोरी या “सावेद बाई द बेल” के जैक और स्लेटर, जबकि वे लोग जो सच्चे में मेहनत करते हैं और अच्छे अंक लाते हैं, जैसे कि "मैथमेटिक्स ओलंपियाड" के चैंपियन या "वालेडिक्टोरियन", उन्हें नजरअंदाज किया जाता है.
रामास्वामी ने यह भी बताया कि 90 के दशक में कई आप्रवासी परिवारों ने अपने बच्चों को अमेरिकन टीवी शोज़ और संस्कृति से दूर रखा था क्योंकि वे समझते थे कि यह शोज़ औसत दर्जे को बढ़ावा देते हैं. इसके बजाय, वे अपने बच्चों को STEM (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित) के क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते थे, और ऐसे ही बच्चों ने सफलता हासिल की.
अमेरिका की तकनीकी प्रतिस्पर्धा: चीन और अन्य देशों से चुनौती
रामास्वामी का यह भी मानना है कि अगर अमेरिकी समाज इसी मानसिकता को जारी रखता है, तो चीन जैसे देशों से प्रतिस्पर्धा में अमेरिका पिछड़ सकता है. उन्होंने कहा कि यह अमेरिका का "स्पुतनिक पल" हो सकता है, जैसा कि 1950 के दशक में स्पुतनिक उपग्रह के प्रक्षेपण के बाद अमेरिका ने अपनी शिक्षा प्रणाली में सुधार किए थे. वे उम्मीद करते हैं कि अमेरिकी संस्कृति में एक नई जागृति आएगी, जो अब फिर से उत्कृष्टता को महत्व देगी, औसत दर्जे को नहीं.
संस्कृति में बदलाव की आवश्यकता
रामास्वामी ने इस मुद्दे को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा कि अगर अमेरिका को तकनीकी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा में आगे रहना है, तो उसे अपनी संस्कृति को फिर से आकार देना होगा. उनका कहना था कि यह बदलाव बच्चों के पालन-पोषण से लेकर समाज के सभी स्तरों तक लागू होना चाहिए.
वह चाहते हैं कि अमेरिकी परिवारों में बच्चों के लिए ऐसे कार्यक्रम और गतिविधियां हो, जो उन्हें औसत दर्जे से ऊपर उत्कृष्टता की ओर प्रेरित करें. उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि बच्चों को अधिक विज्ञान प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वे अध्ययन पर अधिक ध्यान दें न कि सामाजिक गतिविधियों पर.