रामानंदी परंपरा से क्यों होती भगवान रामलला की पूजा, जानें कैसे जुड़ी हुई है इस संप्रदाय से अयोध्या की भक्ति धारा?
भारत के जन-जन के प्राणतत्व भगवान रामलला की प्राण प्रतिष्ठा की शुभ घड़ी नजदीक आ गई है. 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के लिए 84 सेकंड का अति सूक्ष्म मुहूर्त निकाला गया है. श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ने रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के बाद हर रोज उनकी पूजन विधि, उनसे जुड़े अनुष्ठानों और उनके निमित्त उत्सवों को रामानंदी पद्धति से ही करना तय किया है.
नई दिल्ली: भारत के जन-जन के प्राणतत्व भगवान रामलला की प्राण प्रतिष्ठा की शुभ घड़ी नजदीक आ गई है. 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के लिए 84 सेकंड का अति सूक्ष्म मुहूर्त निकाला गया है. ऐसे में गुजरते वक्त के साथ भारत की धरा राममय होने लगी है. रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा वैष्णव साधुओं और संन्यासियों के रामानंदी संप्रदाय की पूजा-पद्धति से की जाएगी. रामानंदी परंपरा से प्राण-प्रतिष्ठा कराये जाने की वजह यह है कि जब से रामलला यहां विराजमान हैं, तब से रामानंदीय परंपरा से ही उनका पूजन होता चला आया है. ऐसे में इस प्राचीन परंपरा के तहत यह तय किया गया है कि 51 इंच के तराशे गए रामलला की पूजा रामानंदीय परंपरा संप्रदाय से किया जाएगा.
रामानंदी पद्धति से होगा रामलला का पूजन और अनुष्ठान
श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ने रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के बाद हर रोज उनकी पूजन विधि, उनसे जुड़े अनुष्ठानों और उनके निमित्त उत्सवों को रामानंदी पद्धति से ही करना तय किया है. इसके लिए ट्रस्ट की ओर से श्रीराम सेवाविधि-विधान समिति बनाई गई है. इस समिति में महासचिव चंपत राय, नृपेंद्र मिश्र, अनिल मिश्र के साथ अयोध्या के रामानंदी संप्रदाय के महंत कमलनयन दास, रामानंद दास और मैथिलीकिशोरी शरण को आमंत्रित सदस्य बनाया है. यह कमेटी अपनी देख-रेख में पूजा-पद्धति को लिपिबद्ध करायेगी. उसके बाद उसे पुस्तक का स्वरुप देते हुए प्रकाशित किया जाएगा. उसमें पूजा से लेकर अन्य धार्मिक कार्यक्रमों की विधिक प्रक्रिया का विधिवत वर्णन होगा.
रामानंदी संप्रदाय विशिष्टाद्वैत सिद्धांत पर आधारित
रामानंदी संप्रदाय विशिष्टाद्वैत सिद्धांत को स्वीकारता है. इसका आशय यह हुआ कि शरीर और आत्मा दो अलग-अलग नहीं हैं. जैसे आत्म-तत्व के उद्देश्य की पूर्ति के लिए शरीर कार्य करता है, उसी प्रकार ब्रह्म या ईश्वर से पृथक चित अचित का कोई अस्तित्व नहीं हैं. विशिष्टाद्वैत दर्शन में सत्ता या परमसत के तीन स्तर माने गए हैं. पहला स्तर ब्रहम अर्थात ईश्वर, चित अर्थात आत्म-तत्व, तथा अचित अर्थात प्रकृति. विशिष्टाद्वैत सिद्धांत कहता है कि जीव और जगत दोनों ही ब्रह्म ने बनाए हैं. ब्रह्म निर्गुण और निराकार हैं तथा जगत के प्रपंचों से उनका कोई लेना-देना नहीं है. ऐसे में रामानंदी संप्रदाय बैरागी साधुओं के लिए प्राचीनतम संप्रदायों में से एक है और इसे श्रेयस्कर माना गया है.
जानें अयोध्या में क्यों होती है रामानंदी परंपरा से पूजा?
अयोध्या के मंदिरों में रामानंदीय परंपरा से पूजा होने की पुरानी किंवदंती है. कहा जाता है कि 14वीं सदी में स्वामी रामानंदाचार्य के धार्मिक प्रचार प्रसार से हिंदू धर्म पर होने वाले मुगलकाल के आक्रांताओं के हमलों से बचाने की मुहिम चलाई गई थी. स्वामी रामानंदाचार्य ने वैष्णव शैली की पूजा परंपरा को अपने धार्मिक प्रचार अभियान का साधन बनाया, जिसमें श्रीराम और सीता को अपना आराध्य ईष्ट मानकर पूजा-अराधना की जाती है. राम की नगरी अयोध्या में अपने आराध्य देव श्रीराम की पूजा को श्रेष्ठ मानकर पूजा पद्धति को अपनाया गया. जिसका आगे प्रचार-प्रसार हो गया.
अयोध्या के मंदिरों में रामानंदी परंपरा से पूजा का विधान
अयोध्या के 95 फीसदी मंदिरों में रामानंदी परंपरा की पूजा पद्धति को ही अपनाया गया है. रामानंदी परंपरा के तरह एक खास विधि अपनायी जाती है, जिसमें एक बालक रुप में भगवान राम की पूजा, आराधना, अनुष्ठान किया जाता है. सूर्योदय सुबह जगाने से लेकर रात को शयनकाल तक भगवान राम के 16 अनुष्ठान किए जाते हैं, जिसमें भगवान रामलला के खान-पान, स्नान, वस्त्र पहनाना, चंदन और शहद से उनको लेप, उनके पसंदीदा भोजन तक का विधान शामिल है.
जानें कौन है स्वामी रामानंदाचार्य?
रामानंदी संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी रामानंद जिन्हें उनकेअनुयायी स्वामी रामानंदाचार्य कहते हैं. स्वामी रामानंदाचार्य वास्तव में प्रयागराज के रहने वाले थे. जिन्होंने काशी में रहकर अपना संन्यासी जीवन बिताया. संत राघवानंद के शिष्यत्व में अध्ययन और साधना का चक्र पूरा करने के बाद वे तीर्थाटन पर चले गए. साधना पूर्ण गुरु राघवानंद ने रामानंद को आज्ञा दी कि वे नए संप्रदाय का प्रवर्तन कर लें. जिसके बाद रामानंदाचार्य ने रामानंदी संप्रदाय का प्रवर्तन किया. आगे चलकर कालांतर में रामानंदीय परंपरा की पूजा विधि को पूरे उत्तर भारत में अपना ली गई. उसी दौरान देश में स्वामी रामानंदाचार्य के लाखों शिष्य बने. जिनका संबंध सभी जातियों और धर्मों से था. जिसमें कबीर, रसखान और रहीम का नाम उल्लेखनीय है.