विधानसभा चुनाव में अपनी अलग हुई पार्टियों की भारी जीत के बाद उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना और शरद पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी के लिए यह अस्तित्व का सवाल बन गया है. चुनाव के परिणामों ने विपक्षी दलों को गंभीर चुनौती दी है, क्योंकि अब उन्हें अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे.
विधानसभा में विपक्ष अब पहले से कहीं ज्यादा कमजोर हो गया है. इस स्थिति में यह सवाल उठने लगा है कि क्या किसी पार्टी को विपक्ष के नेता का पद मिलेगा, जिसे कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त हो. हालांकि, 288 सदस्यीय विधानसभा में किसी पार्टी को विपक्ष के नेता का पद मिलना थोड़ा मुश्किल हो सकता है, क्योंकि इसके लिए कम से कम 10% सदस्यों का समर्थन होना जरूरी है लेकिन फिर भी, विपक्षी दल महा विकास अघाड़ी (एमवीए) की कुल ताकत के आधार पर इस पद का दावा कर सकते हैं.
इतिहास में, 1980 के दशक में जनता दल और वामपंथी दलों जैसे सीपीआई, सीपीआई (एम), पीडब्ल्यूडी और अन्य ने मिलकर प्रगतिशील लोकतांत्रिक मोर्चा बनाया था. उस समय भी विपक्षी दलों को सत्ता के मुकाबले अपनी ताकत और एकजुटता दिखानी पड़ी थी. अब फिर से वही स्थिति बन रही है, और विपक्षी दलों को एकजुट होकर अपनी आवाज बुलंद करने की जरूरत है.
अब सबकी नजरें इस बात पर हैं कि ठाकरे और पवार अपनी-अपनी पार्टियों को कैसे खड़ा करते हैं, क्योंकि यह एक बहुत ही कठिन काम है. 64 वर्षीय उद्धव ठाकरे ने एंजियोग्राफी के बाद भी चुनाव अभियान का नेतृत्व किया, जबकि 83 वर्षीय शरद पवार ने अपनी मजबूत इच्छाशक्ति के साथ पार्टी को संभाला. पार्टी को फिर से खड़ा करना आसान नहीं होगा, क्योंकि दोनों नेताओं की पार्टियां 20 और 14 सीटों के साथ निराशाजनक प्रदर्शन करने के बाद पूरी तरह से कमजोर हो गई हैं. शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना ने 58 सीटें और अजित पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी ने 41 सीटें जीती हैं, जो एक बड़ी चुनौती पेश करती हैं.
राजनीतिक विशेषज्ञ की माने तो उद्धव ठाकरे और शरद पवार के लिए यह समय अपनी पार्टी को फिर से मजबूत करने का है, और उन्हें अपनी ताकत को पुनः एकजुट करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी. दोनों नेताओं को ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे उनके दल फिर से जनता के बीच विश्वास जगा सकें और विपक्ष में प्रभावी भूमिका निभा सकें.