Master Tara Singh Bharat ratna: भारत सरकार की ओर से हाल ही में कुछ ऐसे लोगों को भारत रत्न का सम्मान देने का एलान किया गया जिन्होंने पूर्व में देश की सेवा और उसे विकास की राह पर ले जाने में अहम भूमिका निभाई. इसमें कर्पूरी ठाकुर से लेकर चौधरी चरण सिंह तक का नाम शामिल है. इसके बाद से ही पंजाब में बीजेपी की सहयोगी रही शिरोमणि अकाली दल ने भी मास्टर तारा सिंह को भारत रत्न देने की मांग शुरू कर दी है.
आज हम आपको विस्तार से बताने जा रहे हैं कि आखिर कौन हैं मास्टर तारा सिंह और क्यों शिरोमणि अकाली दल उन्हें भारत रत्न दिलाने की मांग पर अड़ा हुआ है. इतना ही नहीं सरकार के सामने उनकी मांग को मानने के पीछे क्या चुनौतियां हैं.
मास्टर तारा सिंह शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और शिरोमणि अकाली दल के संस्थापक सदस्य थे. मास्टर तारा सिंह की बात करें तो वो 20वीं सदी के पूर्वार्ध में पंजाब के राजनीतिक और धार्मिक नजरिए में एक मशहूर हस्ती थे. शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और शिरोमणि अकाली दल के संस्थापक सदस्यों में से एक मास्टर तारा सिंह का जीवन सिख पहचान, धार्मिक आजादी और एक अलग पंजाबी सूबे के लिए निरंतर संघर्ष का प्रतीक रहा है.
कहा जाता है कि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम, विभाजन और पंजाबी सूबा आंदोलन के दौरान सिखों का मार्गदर्शन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. शिरोमणि अकाली दल (SAD) ने उनके योगदानों के सम्मान में उनके लिए भारत रत्न की मांग की थी.
पंजाब के रावलपिंडी में जन्मे, तारा सिंह ने एजुकेशन की फील्ड में अपना करियर शुरू किया लेकिन जल्द ही उनका रुझान समाज सेवा की ओर मुड़ गया. 1920 के दशक में, वह गुरुद्वारा सुधार आंदोलन में शामिल हो गए, जिसका उद्देश्य गुरुद्वारों का नियंत्रण ब्रिटिश राज से सिख समुदाय के हाथों में लाना था. इस लड़ाई में उनकी भूमिका ने उन्हें सिख समुदाय में एक लोकप्रिय नेता बना दिया.
तारा सिंह का मानना था कि सिख एक अलग धार्मिक और सांस्कृतिक समुदाय हैं, जिन्हें एक अलग पहचान की आवश्यकता है. उन्होंने तत्कालीन प्रचलित हिंदू धर्म के भीतर सिखों को वर्गीकृत करने का जोरदार विरोध किया. उन्होंने सिख धर्म की विशिष्ट पहचान को बनाए रखने और उसे मान्यता दिलाने के लिए अथक प्रयास किए.
ब्रिटिश राज से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, तारा सिंह पंजाब के पुनर्गठन और एक अलग पंजाबी सूबे के निर्माण के लिए आंदोलन का नेतृत्व करने में सबसे आगे रहे. उनका मानना था कि सिख बहुसंख्यक आबादी वाले क्षेत्र में उनकी भाषा, संस्कृति और पहचान सुरक्षित रहेगी. उन्होंने इस आंदोलन के दौरान कई बार जेल यात्रा भी की.
मास्टर तारा सिंह का जन्म 1885 में हुआ था और वो एक कुशल शिक्षक और गंभीर विचारक थे. उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई, लेकिन उनका मुख्य फोकस 'गुरुद्वारा सुधार आंदोलन' रहा.
1920 के दशक में, गुरुद्वारों का प्रबंधन महंतों के हाथों में था, जो उन्हें अपनी निजी जागीर की तरह चलाते थे. तारा सिंह ने इसे धर्मनिरपेक्ष गुरुद्वारा प्रबंधन की मांग को जोरदार तरीके से उठाया.
उनके नेतृत्व में, शांतिपूर्ण प्रदर्शनों और सत्याग्रहों का सिलसिला चला, जिसके परिणामस्वरूप 1925 में 'शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी)' का गठन हुआ. यह गुरुद्वारों के प्रबंधन और धार्मिक कार्यों को संभालने वाली सर्वोच्च संस्था है.
मास्टर तारा सिंह का जीवन पंजाब की राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है. मास्टर तारा सिंह को एक गंभीर नेता के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने गुरुद्वारों के सुधार और सिख समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्ष किया. उन्हें "पंजाब के केसरिया सिंह" के नाम से भी जाना जाता है.
1967 में अपने निधन तक तारा सिंह एक शक्तिशाली और विवादास्पद व्यक्ति बने रहे. उनके समर्थक उन्हें सिख पहचान के अथक समर्थक और पंजाब के लिए समर्पित नेता के रूप में देखते हैं. वहीं उनके आलोचक उन्हे सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने और हिंदू-सिख तनावों को भड़काने के लिए जिम्मेदार मानते हैं.
मास्टर तारा सिंह के विचारों और राजनीति पर बहस बनी हुई है.उनकी विरासत बहुआयामी है और इस पर आज भी बहस जारी है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि उन्होंने सिख पहचान और पंजाब के हितों की रक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया. शिरोमणि अकाली दल (SAD) ने उनके योगदान को सम्मान देने के लिए उन्हें भारत रत्न देने की मांग की है, लेकिन यह विवादित विषय है.