Sapinda Marriage Controversy: भारतीय समाज में शादी के संस्कार का अहम महत्व है. हिंदू धर्म में परंपरागत रूप से शादी के लिए जाति, गोत्र और सगोत्रता जैसे कई कारणों को ध्यान में रखा जाता है. इन्हीं में से एक महत्वपूर्ण कारक है सपिंड शादी पर बैन. आखिर ये क्या होता है और हिंदू धर्म में इस पर बैन क्यों लगा हुआ है. हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट ने एक फैसले के जरिए फिर से सपिंड शादी पर बैन लगा दिया जिसके चलते यह विषय फिर से सामाजिक और धार्मिक जगत में चर्चा का विषय बन गया है.
सपिंड शादी का तात्पर्य उन रिश्तेदारों के बीच शादी से होता है जो पूर्वजों की सात पीढ़ियों तक के रक्त संबंधियों के दायरे में आते हैं. इस बैन के पीछे प्राचीन धर्मशास्त्रों और सामाजिक मान्यताओं का सम्मिश्रण माना जाता है. एक मान्यता के अनुसार सपिंड शादी से उत्पन्न संतान में शारीरिक और मानसिक कमजोरियां आ सकती हैं. वहीं, सामाजिक स्तर पर सगोत्र शादी से वर्जना का कारण पारिवारिक संरचना का टूटना और सामाजिक व्यवस्था में अराजकता का माना जाता है.
दिल्ली उच्च न्यायालय के हालिया फैसले में एक याचिका को खारिज करते हुए न्यायालय ने यह माना कि सपिंड शादी का बैन धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है. न्यायालय ने यह भी कहा कि यह बैन सामाजिक व्यवस्था और नैतिक मूल्यों के संरक्षण के लिए आवश्यक है. इस फैसले से रेडिकल विचारधारा वाले वर्ग में संतुष्टि व्यक्त की गई है, जबकि प्रगतिशील विचारकों का मानना है कि यह फैसला व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करता है.
सपिंड शादी के बैन पर बहस का एक महत्वपूर्ण पहलू इसकी वैज्ञानिक आधारहीनता का प्रश्न है. आधुनिक विज्ञान यह प्रमाणित नहीं करता है कि सगोत्र शादी से संतान में कोई शारीरिक या मानसिक कमजोरियां आती हैं. इस लिहाज से यह बैन अंधविश्वास और रेडिकल विचारधारा वाले परंपरा का प्रतीक माना जा सकता है.
हालांकि, सामाजिक व्यवस्था के नजरिए से भी इस बैन पर विचार करना आवश्यक है. पारंपरिक रूप से भारतीय समाज में जाति और गोत्र के आधार पर सामाजिक समूहों का विभाजन रहा है. ऐसे में सगोत्र शादी से इन समूहों की संरचना और सामाजिक व्यवस्था में बदलाव आ सकता है. इस बदलाव को सुचारू रूप से लाने के लिए सामाजिक सुधार और जागरूकता की आवश्यकता है.
सपिंड शादी का बैन एक जटिल विषय है, जिसमें धार्मिक मान्यताओं, वैज्ञानिक तथ्यों और सामाजिक व्यवस्था के पहलुओं का सम्मिश्रण है. दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले ने इस बहस को पुनः प्रज्वलित किया है. आगे आने वाले समय में सामाजिक चेतना के विकास और वैज्ञानिक प्रगति के साथ ही इस बैन की प्रासंगिकता पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए. साथ ही, यह भी आवश्यक है कि समाज में जागरूकता लाकर ऐसे शादी से जुड़े सामाजिक विवादों को कम किया जाए.