Anti-Defection Law: पांच राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग हो चुकी है. मिजोरम के नतीजे 4 दिसंबर को आएंगे. बाकी 4 राज्यों के नतीजे कल यानी 3 दिसंबर को आएंगे. चुनावी नतीजों से पहले एक बार फिर नेताओं के बागी होने और अदला-बदला की बात शुरू हो गई है. भारतीय राजनीति में ऐसा पहली दफा नहीं हो रहा है हर राज्य के विधानसभा चुनाव में जब भी दो प्रमुख पार्टियों के बीच कांटे का मुकाबला होता है किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलता तो वो निर्दलयी विधायक को अपने में मिलाकर सरकार बनाने की कोशिश करती हैं. सरकार बनने के बाद विपक्षी दल सत्ता रूढ़ पार्टी के विधायकों को अपने पाले में करके सरकार गिरा देती है. नेताओं के दल बदलने का सिलसिला भारतीय राजनीति में बहुत पुराना है. इसी पर लगाम लगाने के लिए 1985 में दल बदल विरोधी कानून लाया गया था. ताकी नेताओं के पार्टी बदलने पर लगाम लगाई जा सके. आज हम आपको दल बदल विरोधी कानून क्या है और इसकी जरूरत क्यों पड़ी? इसी को आसान भाषा में समझाने का प्रयास करेंगे.
आजादी के कुछ सालों बाद ये अनुभव किया जाने लगा कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने सामूहिक जनादेश की अनदेखी की जाने लगी है. विधायकों और सांसदों के जोड़-तोड़ से सरकारें बनने और गिरने लगीं. इस स्थिति ने राजनीतिक व्यवस्था में अस्थिरता ला दी. 1967 में हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने एक दिन में तीन बार पार्टी बदली, जिसके बाद 'आया राम गया राम' मुहावरा प्रचलित हो गया. कोई भी विधायक या सांसद जब चाहता तो पार्टी बदलकर दूसरे पार्टी में शामिल हो जाता है. हरियाणा के एक विधायक गया लाल के एक दिन में 3 बार पार्टी बदलने के बाद सरकार को लगा कि इस पर लगाम लगाने के लिए कानून की आवश्यकता है. इसके बाद दल बदल विरोधी कानून लाया गया.
अंत में 1985 में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार इसके खिलाफ विधेयक लेकर आई. दल-बदल विरोधी कानून एक मार्च 1985 को अस्तित्व में आया, ताकि अपनी सुविधा के हिसाब से पार्टी बदल लेने वाले विधायकों और सांसदों पर लगाम लगाई जा सके. 1985 से पहले दल-बदल के खिलाफ कोई कानून नहीं था.
1985 में संविधान में 10वीं अनुसूची में दल बदल विरोधी कानून को जोड़ा गया. ये संविधान में 52वां संशोधन था. इसमें विधायकों और सांसदों के पार्टी बदलने पर लगाम लगाया गया. इसमें ये भी बताया गया कि दल-बदल के कारण इनकी सदस्यता भी खत्म हो सकती है.
आइए आपको बताते हैं किसी विधायक या सांसद पर दल बदल विरोधी कानून कब-कब लागू होगा. तो सबसे पहले अगर कोई विधायक या सांसद खुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है. पार्टी लाइन के खिलाफ जाता है. पार्टी व्हिप के बावजूद वोट नहीं करता या फिर कोई सदस्य सदन में पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करता है. तो ये दल-बदल विरोधी कानून के दायरे में आता है.
अब अगर इसे हालिया उदाहरण से समझना चाहें तो मध्य प्रदेश मे मार्च 2020 में कांग्रेस के 22 विधायकों के इस्तीफे के बाद कमलनाथ की सरकार गिर गई थी. इसके बाद एमपी में शिवराज सिंह चौहान की सरकार बनी थी. इसी तरह से कर्नाटक में 2018 में बीएस येदियुरप्पा की सरकार गिर गई थी.
लेकिन इसमें अपवाद भी है. अगर किसी पार्टी के दो तिहाई विधायक या सांसद दूसरी पार्टी के साथ जाना चाहें, तो उनकी सदस्यता खत्म नहीं होगी. 2003 में इस कानून में संशोधन भी किया गया. जब ये कानून बना तो प्रावधान ये था कि अगर किसी पार्टी में बंटवारा होता है और एक तिहाई विधायक एक नया ग्रुप बनाते हैं, तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी. लेकिन इसके बाद बड़े पैमाने पर दल-बदल हुए और ऐसा महसूस किया कि पार्टी में टूट के प्रावधान का फायदा उठाया जा रहा है. इसलिए ये प्रावधान खत्म कर दिया गया.
इसका उदाहरण महाराष्ट्र में देखने को मिला जब शिवसेना के दो भाग हुए. शिंदे गुट और उद्धव गुट. 55 विधायकों में से 35 विधायक एकनाथ शिंदे गुट में शामिल हो गए थे जिसके बाद उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा था. शिवसेना के विधायकों ने पार्टी नहीं बदली. पार्टी के दो फाड़ होने के बाद में बीजेपी के सहयोग से एकनाथ शिंदे ने सरकार बना ली.
सामूहिक दल बदल के खतरे को देखते हुए 91वें संविधान संशोधन किया गया. इस संशोधन के तहत व्यक्तिगत ही नहीं, सामूहिक दल बदल को असंवैधानिक करार दिया गया. अब सदस्य कुछ परिस्थितियों में सदस्यता गंवाने से बच सकते हैं.
अगर एक पार्टी के दो तिहाई सदस्य मूल पार्टी से अलग होकर दूसरी पार्टी में मिल जाते हैं, तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी. ऐसी स्थिति में न तो दूसरी पार्टी में विलय करने वाले सदस्य और न ही मूल पार्टी में रहने वाले सदस्य अयोग्य ठहराए जा सकते हैं.
यानी दल बदल विरोधी कानून उन परिस्थितियों में नहीं लागू होगा जब पूरी की पूरी राजनीतिक पार्टी अन्य राजनीति पार्टी के साथ मिल जाती है. अगर किसी पार्टी के निर्वाचित सदस्य एक नई पार्टी बना लेते हैं. अगर किसी पार्टी के सदस्य दो पार्टियों का विलय स्वीकार नहीं करते और विलय के समय अलग ग्रुप में रहना स्वीकार करते है. या फिर जब किसी पार्टी के दो तिहाई सदस्य अलग होकर नई पार्टी में शामिल हो जाते हैं.
वैसे दल-बदल को लेकर आखिरी फैसला स्पीकर या चेयरपर्सन का होता है. आपको बता दें कि दुनिया के कई परिपक्व लोकतंत्र में दल बदल विरोधी कानून जैसी कोई व्यवस्था नहीं है. इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका जैसे देशों में जनप्रतिनिधि अपने दल के विपरीत मत रखते हैं या पार्टी लाइन से अलग जाकर वोट करते हैं फिर भी वे उसी पार्टी में बने रहते हैं. वहां दल-बदल विरोधी कानून को गैर लोकतांत्रिक माना जाता है क्योंकि यह जन-प्रतिनिधियों के स्वतंत्रता के अधिकार का हनन करता है.