एक रात में शताब्दियों के गर्द-ओ-गुबार, कैसे थी आजादी की पहली सुबह?
14 अगस्त 1947 की सुबह से ही देश के शहर-शहर, गांव-गांव में जश्न शुरू हो गया था. दिल्ली के बाशिंदे घरों से निकल पड़े, साइकिलों, कारों, बसों, रिक्शों, तांगो, बैलगाड़ियों, यहां तक हाथियों-घोड़ो पर भी सवार होकर लोग दिल्ली के केंद्र यानी इंडिया गेट की ओर चल पड़े. लोग नाच गा रहे थे. एक दूसरे को बधाइयां दे रहे थे और हर तरफ राष्ट्रगान की धुन सुनाई पड़ रही थी
आज देश 78 वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है. इस दिन हर हिंदुस्तानी उस रात के बारे में जानना चाहता है जब हमारे पूर्वजों ने पहली बार एक आजाद मुल्क में सांस ली थी और फिर हमारे जहन में सवाल आता है कि कैसे रही होगी 14-15 अगस्त 1947 की रात. दिल्ली की तस्वीर कैसी होगी. कैसे पूरी रात जग कर लोगों ने देश को आजाद होते देखा होगा, उस पल को जिया होगा. कैसे अंग्रेजी शासन के खौफ से पीछा छुड़ाकर खुद के पैंरों पर खड़े होकर भारत ने एक रात में शताब्दियों के गर्द-ओ -गुबार झाड़कर फेंक दिया?. कैसी होगी आजादी की बाद वाली सुबह?
फेमस लेखक डोमिनिक लैपीयरे और लैरी कालिन्स अपनी किताब फ्रीडम एट मिडनाइट में 14 अगस्त 1974 के ऐतिहासिक दिन का पूरा चित्रण करते हुए लिखा है. सैन्य छावनियों, सरकारी कार्यालयों, निजी मकानों आदि पर लहराते यूनियन जैक को उतारा जाना शुरू हो चुका था. 14 अगस्त को जब सूर्य डूबा तो देशभर में यूनियन जैक को ध्वज दण्ड का त्याग कर दिया. ताकि वह चुकते से भारतीय इतिहास के भूत-काल की एक चीज बनकर रह जाए. समारोह के लिए आधी रात को धारा सभा भवन पूरी तरह तैयार था. जिस कक्ष में भारत के वायसरायों की भव्य आयल पेंटिंग्स लगी रहा करती थी, वहीं अब अनेक तिरंगे झंडे शान से लहरा रहे थे.
आजाद भारत की पहली सुबह
लैपीयरे और कालिन्स लिखते है, '14 अगस्त की सुबह से ही देश के शहर-शहर, गांव-गांव में जश्न शुरू हो गया था. दिल्ली के बाशिंदे घरों से निकल पड़े, साइकिलों, कारों, बसों, रिक्शों, तांगो, बैलगाड़ियों, यहां तक हाथियों-घोड़ो पर भी सवार होकर लोग दिल्ली के केंद्र यानी इंडिया गेट की ओर चल पड़े. लोग नाच गा रहे थे. एक दूसरे को बधाइयां दे रहे थे और हर तरफ राष्ट्रगान की धुन सुनाई पड़ रही थी'.
'..हम आजाद हो गए'
चारों दिशाओं से लोग दिल्ली की ओर दौड़े चले आ रहे थे. तांगों से पीछे तांगे, बैलगाड़ियों के पीछे रेलगाड़ियों, कारें, ट्रक, रेलगाड़ी, बसें सब लोगों को दिल्ली ला रही थी. लोगों ने यह दूरी कैसे तय की थी इसकी कल्पना आप इससे लगा सकते हैं कि लोग ट्रेन की खिड़कियों से लटकर तो कोई पैदल ही चलना शुरू कर दिए.
लोगों के मन में खुशी थी, 'वे कहते थे अरे तुम्हें नहीं पता, अग्रेज जा रहे हैं. आज नेहरू जी देश का झंडा फहराएंगे हम आजाद हो गए'.
भला आजाद मुल्क में भी कोई टिकट लगेगा?
गांव देहात से आए लोग अपने बच्चों को आजादी का मतलब अपने अपने हिसाब से समझा रहे थे कि अब अंग्रेज चले गए. अब हमारे पास ज्यादा पशु होंगे, खेत में ज्यादा फसलें होंगी. अब कहीं आने जाने पर कोई नहीं रोकेगा. ग्वालों ने अपनी पत्नियों से कहा कि अब गाय ज्यादा दूध देगी. क्योंकि आजादी मिल गई है. लोगों ने बसों में टिकट खरीदने से इनकार कर दिया, भला आजाद मुल्क में भी कोई टिकट लगा करते हैं.
अब कोई बड़ा छोटा नहीं होगा
आजादी का समारोह देखने आए एक भिखारी उस विभाग में दाखिल होने लगा, जो विदेश के राजनीतिज्ञों के लिए आरक्षित था. जब सिपाही ने पूछा कि तुम्हारा आमंत्रण पत्र कहा है तो वह चकित हो गया. आमंत्रण, उसने कहा 'अब कैसा आमंत्रण हम आजाद हो गए हैं. समझे'. अब कोई बड़ा छोटा नहीं होगा. सब बराबर होंगे. सबकी आंखों में आजाद भारत को लेकर अपनी एक समझ थी, अपनी एक सोच और एक सपना था, क्योंकि इसमें कोई भी आजाद मुल्क में नहीं रह रहा था. लोग देखना चाहते थे कि एक आजाद मुल्क कैसा होता है.
लेखक राजेंद्र लाल हांडा ने अपनी किताब दिल्ली में दस वर्ष में 1940 से 1950 के बीच की दिल्ली की जिंदगी, सत्ता के गलियारों में हो रहे बदलावों और सामाजिक आर्थिक पहलुओं पर काफी विस्तार से लिखा है. वे लिखते हैं, रात के लगभग दो बजे स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्रा पंडित जवाहरलाल नेहरू धारा सभा से निकल कर वायसराय भवन की ओर गवर्नर जनरल को आमंत्रित करने गए. स्वतंत्रता के उत्साह में भीड़ भी उनके पीछे-पीछे चली गई.
अपूर्व समारोह, अपूर्व दृश्य
खाली स्थान था ही नहीं और जनसमूह इतना बड़ा था कि यह पता लगाना असंभव था कि लोग किधर जा रहे हैं. कुछ देर बाद प्रधानमंत्री गवर्नर जनरल को साथ ले धारा सभा भवन में आ गए. उस समय लोगों का जोश चरम सीमा को पहुंच चुका था. नेताओं के अभिनंदन में बराबर नारे लगाए जा रहे थे. उस समय सभी कुछ नवीन और अपूर्व दिखाई देता था. अपूर्व समारोह, अपूर्व दृश्य, अपूर्व उत्साह, अपूर्व देशभक्ति और अपूर्व जनसमूह.