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India Daily

मनमोहन सिंह का वो फैसला जिसके कारण 1991 में दिवालिया होने से बच गया था भारत

1991 तक भारत की अर्थव्यवस्था इतनी बिगड़ चुकी थी कि देश के पास विदेशी मुद्रा के भंडार केवल दो हफ्तों के आयात के लिए पर्याप्त थे. महंगाई दर दो अंकों में थी और सरकारी खजाना भारी घाटे में था. यह स्थिति ऐसी थी कि अगर तत्काल कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाता, तो भारत एक आर्थिक संकट में फंसकर दिवालिया हो सकता था.

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Edited By: Sagar Bhardwaj
 Manmohan Singh

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए हमेशा याद किया जाएगा. 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था गंभीर संकट से गुजर रही थी और मनमोहन सिंह के ऐतिहासिक निर्णयों ने न केवल भारत को दिवालियापन से बचाया, बल्कि उसे वैश्विक आर्थिक मंच पर एक नई पहचान भी दिलाई.

1991, जब दिवालिया होने की कगार पर पहुंच गया था भारत

1991 तक भारत की अर्थव्यवस्था इतनी बिगड़ चुकी थी कि देश के पास विदेशी मुद्रा के भंडार केवल दो हफ्तों के आयात के लिए पर्याप्त थे. महंगाई दर दो अंकों में थी और सरकारी खजाना भारी घाटे में था. यह स्थिति ऐसी थी कि अगर तत्काल कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाता, तो भारत एक आर्थिक संकट में फंसकर दिवालिया हो सकता था. मनमोहन सिंह, जो उस समय भारत के वित्त मंत्री थे, को इस संकट से निपटने के लिए जिम्मेदारी दी गई थी. प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के नेतृत्व में उन्होंने कठिन और साहसिक कदम उठाए, जो भारतीय अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाए.

साहसिक आर्थिक सुधार: उदारीकरण की शुरुआत
मनमोहन सिंह ने जुलाई 1991 में भारत के आर्थिक संकट से उबारने के लिए कई कड़े कदम उठाए. सबसे पहले, सरकार ने रुपये को दो बार अवमूल्यन (devaluation) किया, जिससे भारतीय निर्यात को वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धी बनाने का अवसर मिला. इसके साथ ही विदेशी मुद्रा के भंडार को बढ़ाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने 47 टन सोना अंतरराष्ट्रीय बैंकों को गिरवी रख दिया, जिससे लगभग 600 मिलियन डॉलर की राशि जुटाई गई. इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से 2 बिलियन डॉलर का आपातकालीन ऋण प्राप्त किया गया, जो तत्काल राहत का स्रोत बना.

लेकिन ये सिर्फ पहले कदम थे. 24 जुलाई 1991 को सिंह ने अपना पहला बजट प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने केवल संकट प्रबंधन तक सीमित न रहते हुए, भारत के आर्थिक भविष्य को फिर से आकार देने के लिए एक नया दृष्टिकोण पेश किया.

लाइसेंस राज का अंत

मनमोहन सिंह के बजट में सबसे बड़ा कदम था लाइसेंस राज को समाप्त करना. भारतीय उद्योगों पर सरकारी नियंत्रण की यह प्रणाली दशकों से विकास में रुकावट डाल रही थी. इसके अलावा, विदेशी निवेश के लिए बाजार को खोलने के लिए विदेशी निवेश के लिए 51% तक स्वीकृत निवेश की स्वीकृति दी गई और केवल 18 महत्वपूर्ण क्षेत्रों में औद्योगिक लाइसेंसिंग की आवश्यकता रखी गई.

यह सुधार व्यापार और उद्योगों को स्वतंत्र रूप से काम करने का अवसर देने के साथ-साथ विदेशी निवेश को आकर्षित करने में सहायक साबित हुआ. सिंह की नीतियों ने भारतीय उद्योगों को आधुनिक बनाने की दिशा में अहम भूमिका निभाई और देश की आर्थिक स्थिरता के लिए आधार तैयार किया.

नीतिगत बदलावों का प्रभाव: विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि
इन नीतिगत सुधारों का तत्काल प्रभाव देखने को मिला. दो सालों के भीतर, भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में $1 बिलियन से बढ़कर 10 बिलियन डॉल का इजाफा हुआ. इसने न केवल भारत को दिवालिया होने से बचाया, बल्कि उसे एक मजबूत आर्थिक स्थिति में ला खड़ा किया. इसके साथ ही, भारत ने वैश्विक व्यापार में अपनी उपस्थिति को भी मजबूत किया और आर्थिक दृष्टि से एक नए युग में प्रवेश किया.

मनमोहन सिंह का विश्वास: भारत की क्षमता पर अडिग आस्था
मनमोहन सिंह ने हमेशा यह विश्वास जताया कि "कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ चुका हो." उनके नेतृत्व में भारतीय अर्थव्यवस्था ने न केवल संकट का सामना किया, बल्कि उसे अवसर में बदलने का साहस भी दिखाया. उनके फैसलों ने भारत को एक नए आर्थिक युग में प्रवेश करने का मार्ग प्रशस्त किया.