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'सजा नहीं, बेहतर जिंदगी के लिए मिलनी चाहिए रकम,' तलाक को लेकर सुप्रीम कोर्ट

Supreme Court On Divorce Alimony: कोर्ट ने कहा कि बयानों से यह स्पष्ट है कि दोनों ही पक्ष अच्छी तरह से योग्य हैं, लेकिन पति, पत्नी की मासिक आय का लगभग पांच गुना कमाता है. पति के पास तीन आश्रितों, अपने स्वयं के खर्चों और कुछ बैंक लोन के प्रति कुछ दायित्व हैं, लेकिन उसके पास स्पष्ट रूप से अपनी पूर्व पत्नी को बनाए रखने की वित्तीय क्षमता भी है.

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Edited By: India Daily Live
Supreme Court
Courtesy: Social Media

Supreme Court On Divorce Alimony: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि तलाक के मामले में कहा है कि भरण-पोषण या स्थायी गुजारा भत्ता दंडात्मक नहीं होना चाहिए. इसका उद्देश्य पत्नी के लिए सभ्य जीवन स्तर सुनिश्चित करना होना चाहिए. वर्तमान मामले में कोर्ट ने पति को अपनी पत्नी को स्थायी गुजारा भत्ता के रूप में 2 करोड़ रुपये देने का आदेश दिया.

जस्टिस विक्रम नाथ और प्रशांत कुमार मिश्रा की बेंच ने एकमुश्त समझौता राशि तय करने के लिए कई मिसालों का सहारा लिया. इन फैसलों में विश्वनाथ अग्रवाल बनाम सरला विश्वनाथ अग्रवाल, (2012) केस का हवाला दिया. कोर्ट ने कहा कि ये देखा गया कि स्थायी गुजारा भत्ता मुख्य रूप से सामाजिक स्थिति, पक्षों के आचरण, पक्षों की जीवनशैली और ऐसे अन्य सहायक कारकों पर विचार करने के बाद दिया जाना चाहिए.

गुजारा भत्ता के कारकों में ये शामिल

  • पक्षों की सामाजिक और वित्तीय स्थिति
  •  पत्नी एवं आश्रित बच्चों की उचित आवश्यकताएं
  • पक्षों की योग्यताएं और रोजगार की स्थिति
  • पक्षों के स्वामित्व वाली स्वतंत्र आय या संपत्ति
  • गैर-कामकाजी पत्नी के लिए उचित मुकदमेबाजी लागत
  • पति की वित्तीय क्षमता, उसकी आय, भरण-पोषण दायित्व

कोर्ट ने कहा कि पक्षों की स्थिति एक महत्वपूर्ण कारक है, जिसमें उनकी सामाजिक स्थिति, जीवनशैली और फाइनेंशियल बैकग्राउंड शामिल है. पत्नी और आश्रित बच्चों की उचित आवश्यकताओं का आकलन किया जाना चाहिए, जिसमें भोजन, कपड़े, आश्रय, शिक्षा और मेडिकल खर्च शामिल हैं. 

इसके अलावा, रजनेश बनाम नेहा और अन्य (2020) के मामले में, कोर्ट ने भरण-पोषण राशि की गणना के लिए कई कारक निर्धारित किए थे. इन कारकों में पक्षों के स्वामित्व वाली स्वतंत्र आय या संपत्ति, वैवाहिक घर में रहने के मानक को बनाए रखना आदि शामिल थे.

कोर्ट पाया कि दोनों पक्ष शिक्षित और कार्यरत हैं, उनका जीवन स्तर ऊंचा है और उनके आश्रितों की देखभाल की जानी है. कोर्ट ने पाया कि पति की मासिक आय 8 लाख रुपये से अधिक थी, जबकि पत्नी की मासिक आय 1,39,000 रुपये थी. 

कोर्ट ने दोनों पक्षों के आश्रितों के प्रति जिम्मेदारियों का भी दिलाया ध्यान

इसके अलावा,कोर्ट ने दोनों पक्षों की अपने आश्रितों के प्रति जिम्मेदारियों की ओर भी ध्यान दिलाया. पति अपने माता-पिता के मेडिकल खऱ्च और उनके रहने के लिए जिम्मेदार था. दूसरी ओर, उसकी पत्नी अपने माता-पिता के साथ-साथ अपनी नाबालिग बेटी के लिए भी जिम्मेदार थी.

ये भी ध्यान देने वाली बात है कि पत्नी ने एकमुश्त समझौते के तौर पर 5 से 7 करोड़ रुपए की मांग की थी. लेकिन पति केवल 50 लाख रुपए देने को तैयार था. लेकिन, फैक्ट्स, परिस्थितियों और कारकों पर विचार करते हुए कोर्ट ने 2 करोड़ रुपये की उचित राशि तय की. 

क्या है पूरा मामला?

खंडपीठ दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ पत्नी की ओर से दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी. चुनौती दिए गए फैसले ने उसके पति के बैंक खाते को कुर्क करने और अंतरिम भरण-पोषण के लिए पूरी रकम का भुगतान करने की उसकी प्रार्थना को खारिज कर दिया.

शादी के एक साल के भीतर, पत्नी ने अन्य बातों के साथ-साथ क्रूरता और दहेज की मांग की शिकायत दर्ज कराई. जब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा, तो इसकी सुनवाई चैंबर में हुई (खुली अदालत में नहीं, बल्कि निजी तौर पर). कोर्ट ने शुरू में ही पाया कि दोनों पक्ष पिछले 9 सालों से अलग-अलग रह रहे हैं. इसके अलावा, भले ही उन्हें अलग-अलग कोर्ट की ओर से मध्यस्थता के लिए भेजा गया था, लेकिन कई चरणों में सुलह नहीं हो पाई. इस पर गौर करते हुए, कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि उनकी शादी पूरी तरह से टूट चुकी थी.