'अदालतें विधायिका को विशेष तरीके से कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकतीं', जानें सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा क्यों कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायपालिका और विधायिका के कार्यक्षेत्र स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं. अदालतों का काम संवैधानिक दायरे में न्याय करना है, न कि विधायिका को कोई विशेष निर्देश देना. अदालत ने यह भी कहा कि कानून निर्माण विधायिका का विशेषाधिकार है और इसमें किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए.
उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को स्पष्ट किया कि अदालतें विधायिका को किसी विशेष तरीके से कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकतीं. न्यायालय ने कहा कि विधायिका स्वतंत्र रूप से अपने अधिकार क्षेत्र में कार्य करने के लिए सक्षम है और अदालतें इसमें दखल नहीं दे सकतीं.
न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने यह टिप्पणी तब की जब उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय के फरवरी 2024 के आदेश के खिलाफ दायर एक याचिका पर सुनवाई की. यह याचिका एक जनहित याचिका (PIL) से संबंधित थी, जिसका उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में निस्तारण कर दिया था.
अदालत का रूख और विधायिका की स्वतंत्रता
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायपालिका और विधायिका के कार्यक्षेत्र स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं. अदालतों का काम संवैधानिक दायरे में न्याय करना है, न कि विधायिका को कोई विशेष निर्देश देना. अदालत ने यह भी कहा कि कानून निर्माण विधायिका का विशेषाधिकार है और इसमें किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए.
विधायी प्रक्रिया में न्यायपालिका का दखल नहीं
सुनवाई के दौरान, पीठ ने जोर देकर कहा कि अगर कोई व्यक्ति या संस्था किसी कानून से असंतुष्ट है तो वह उचित संवैधानिक उपाय अपना सकता है, लेकिन अदालतें स्वयं विधायिका को कानून बनाने के तरीके पर निर्देश नहीं दे सकतीं. न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि लोकतंत्र में सत्ता का संतुलन बनाए रखना आवश्यक है और विधायिका को स्वतंत्र रूप से कार्य करने दिया जाना चाहिए.
दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश की पुष्टि
इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखते हुए याचिका को खारिज कर दिया. अदालत ने यह दोहराया कि विधायिका को अपने तरीके से कानून बनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और न्यायपालिका को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.
इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि न्यायपालिका विधायिका को कानून बनाने के तरीके पर निर्देश नहीं दे सकती। यह निर्णय विधायिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाए रखने के सिद्धांत को मजबूत करता है और कानून निर्माण की प्रक्रिया को स्वतंत्र रूप से संचालित करने की वकालत करता है।
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