Supreme Court Decision: सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के एक कॉलेज प्रोफेसर के खिलाफ धारा 370 को निरस्त करने की आलोचना करने वाले व्हाट्सएप स्टेटस और पाकिस्तान को उसके स्वतंत्रता दिवस पर शुभकामनाएं देने के लिए दर्ज की गई एफआईआर को रद्द कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति विवियन बोस की ओर से लिखित 1947 के नागपुर हाईकोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि शब्दों के प्रभाव को पुरुषों और महिलाओं के मानकों से आंका जाना चाहिए.
इंडियन एक्सप्रेस अखबार की रिपोर्ट के अनुसार वर्षों से अदालतों ने न्यायमूर्ति विवियन बोस के फैसले को यह तय करने के लिए एक मानदंड के रूप में इस्तेमाल किया है कि क्या बोले गए या लिखे गए कोई भी शब्द अलग-अलग समूहों के बीच दुश्मनी या बैर को बढ़ावा दे सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट कोल्हापुर के एक कॉलेज में प्रोफेसर जावेद अहमद हाजम की ओर से दाखिल याचिका पर सुनवाई कर रहा था. रिपोर्ट में कहा गया है कि जावेद पहले कश्मीर के बारामूला जिले के स्थायी निवासी थे, बाद में वे प्रोफेसर बनने के लिए कोल्हापुर चले गए थे.
रिपोर्ट में कहा गया है कि माता-पिता और बाकी शिक्षकों के एक व्हाट्सएप समूह में जावेद ने 13 अगस्त और 15 अगस्त 2022 के बीच कथित तौर पर स्टेटस के रूप में दो मैसेज पोस्ट किए. इन मैसेज में 5 अगस्त को 'जम्मू और कश्मीर काला दिवस' और 14 अगस्त को 'हैप्पी इंडिपेंडेंस डे पाकिस्तान' लिखा था. उन्होंने लिखा था कि अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया है, जिससे हम खुश नहीं हैं.
इन आरोपों के आधार पर कोल्हापुर के हातकणंगले पुलिस स्टेशन की ओर से उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 153 ए के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी. इन धाराओं में केस धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर अलग-अलग समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने के आरोप में दर्ज किया जाता है. इसमें तीन साल तक की कैद, जुर्माना या फिर दोनों की सजा हो सकती है.
इसके बाद 10 अप्रैल 2022 को बॉम्बे हाई कोर्ट की दो जजों वाली बेंच ने फैसला सुनाया कि पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस मनाना धारा 153ए के दायरे में नहीं आएगा, लेकिन अन्य आपत्तिजनक हिस्सा अपराध के श्रेणी में आ सकता है. इसके जवाब में प्रोफेसर ने हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रमी कोर्ट का रुख किया.
गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने एफआईआर को रद्द करते हुए कहा कि जिस दिन 370 का निरस्तीकरण हुआ, उस दिन को 'काला दिवस' के रूप में विरोध और पीड़ा को दिखाना अभिव्यक्ति है. यदि राज्य के कार्यों की हर आलोचना या विरोध को धारा 153-ए के तहत अपराध माना जाएगा, तो लोकतंत्र जीवित नहीं रहेगा.
मंजर सईद खान बनाम महाराष्ट्र राज्य में अपने 2007 के फैसले पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने कहा कि अपराध का सार अलग-अलग वर्गों के लोगों में दुश्मनी या नफरत की भावनाओं को बढ़ावा देने का इरादा है. हालांकि प्रोफेसर का काम ऐसा कुछ करने के इरादे को नहीं दिखाता है जो धारा 153-ए के तहत निषिद्ध है. सबसे अच्छा यह एक विरोध है, जो अनुच्छेद 19(1)(ए) की ओर से उनकी भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक हिस्सा है.
बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भगवती चरण शुक्ला बनाम प्रांतीय सरकार में न्यायमूर्ति विवियन बोस के 1947 के फैसले का हवाला दिया, जब वह एक थे. 1947 में नागपुर HC की तीन न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति विवियन बोस शामिल थे, को यह तय करने का काम सौंपा गया था कि क्या प्रेस में कोई विशेष लेख, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के लिए घृणा या अवमानना पैदा करने वाला है.
न्यायमूर्ति विवियन बोस ने माना था कि आर्टिकल ने राजद्रोह को उकसाया या प्रेरित नहीं किया. वह एक परीक्षण भी लेकर आए, जो भविष्य में ऐसे मामलों के निर्णय के लिए पैमाना बन गया. अपने फैसले में उन्होंने कहा कि शब्दों के प्रभाव को उचित, मजबूत दिमाग वाले, दृढ़ और साहसी लोगों के मानकों से आंका जाना चाहिए, न कि कमजोर और अस्थिर दिमाग वाले लोगों से.