बचने का कोई चांस नहीं, रेबीज रोगियों के लिए 'निष्क्रिय इच्छामृत्यु' की याचिका पर सुनवाई के लिए राजी हुआ सुप्रीम कोर्ट

9 मार्च, 2018 को एक ऐतिहासिक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने मरने के अधिकार को जीवन के अधिकार के हिस्से के रूप में मान्यता दी थी, निष्क्रिय इच्छामृत्यु को वैध कर दिया था.

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक याचिका पर दो सप्ताह में सुनवाई करने के लिए सहमति जताई, जिसमें रेबीज रोगियों के लिए निष्क्रिय इच्छामृत्यु की मांग की गई है. यह याचिका 2019 के दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले को चुनौती देती है, जिसमें रेबीज को एक असाधारण बीमारी के रूप में मानने और रोगियों को "गरिमापूर्ण मृत्यु" का विकल्प देने के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया गया था.

ऑल क्रिएचर्स ग्रेट एंड स्मॉल ने दायर की थी याचिका
न्यायमूर्ति बी आर गवई और के विनोद चंद्रन की पीठ के समक्ष यह मामला प्रस्तुत किया गया. गैर-सरकारी संगठन 'ऑल क्रिएचर्स ग्रेट एंड स्मॉल' ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर जुलाई 2019 के दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी है.  उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में केंद्र और अन्य अधिकारियों को रेबीज को एक असाधारण बीमारी के रूप में मानने और रोगियों को "गरिमापूर्ण मृत्यु" का विकल्प देने का निर्देश देने के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2020 में केंद्र और अन्य पक्षों को नोटिस जारी कर 2019 की याचिका पर उनकी प्रतिक्रिया मांगी थी.

हालांकि, सोमवार को याचिकाकर्ता के वकील ने अदालत को बताया कि केंद्र ने 2018 में दिल्ली उच्च न्यायालय में इस मामले में एक जवाबी हलफनामा दायर किया था. पीठ ने कहा, "हम इसे दो सप्ताह बाद गैर-विविध दिवस पर सुनेंगे."

याचिका में तर्क
गैर-सरकारी संगठन की याचिका में रेबीज रोगियों के लिए एक प्रक्रिया स्थापित करने का आह्वान किया गया है, जिससे उन्हें या उनके अभिभावकों को चिकित्सक-सहायक निष्क्रिय इच्छामृत्यु का विकल्प चुनने की अनुमति मिल सके.

9 मार्च, 2018 को एक ऐतिहासिक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने मरने के अधिकार को जीवन के अधिकार के हिस्से के रूप में मान्यता दी थी, निष्क्रिय इच्छामृत्यु को वैध कर दिया था और लाइलाज रोगियों या लगातार वनस्पति स्थिति में उन लोगों के लिए "जीवित वसीयत" बनाने की अनुमति दी थी, जिनके ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं है, चिकित्सा उपचार या जीवन समर्थन को अस्वीकार करके एक गरिमापूर्ण विदाई सुनिश्चित की जा सके.

वरिष्ठ अधिवक्ता सोनिया माथुर और अधिवक्ता नूर रामपुर द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए गैर-सरकारी संगठन ने सुप्रीम कोर्ट से अपने पहले के फैसले में रेबीज रोगियों के लिए एक अपवाद बनाने का अनुरोध किया.

रेबीज में बचने का कोई चांस नहीं
याचिका में तर्क दिया गया है कि रेबीज, जिसकी मृत्यु दर 100 प्रतिशत है, अन्य बीमारियों की तुलना में सहन करने में कहीं अधिक कष्टदायक और भयावह हो सकता है. इसमें कहा गया है, "रेबीज के ये अनोखे लक्षण इसे एक असाधारण मामला बनाते हैं, जहां रोगियों को उनके बिस्तर से बांधा और जकड़ा जाना पड़ता है, जिससे उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, आवाजाही, गरिमा और अखंडता कम हो जाती है." याचिका में आगे अदालत से "बीमारी की असाधारण और हिंसक प्रकृति" और इलाज की कमी पर विचार करने और रेबीज को एक अलग श्रेणी के रूप में वर्गीकृत करने का आग्रह किया गया है.