SC on Electoral bonds scheme: भारतीय राजनीति के लिहाज से गुरुवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की चुनावी बॉन्ड योजना को एकमत होकर असंवैधानिक घोषित कर दिया. यह योजना राजनीतिक दलों को गुमनाम रूप से धन प्राप्त करने की अनुमति देती थी, जिस पर लंबे समय से सवाल उठाए जा रहे थे.
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने फैसले में न केवल योजना को खारिज कर दिया, बल्कि यह भी निर्देश दिया कि "जारी करने वाला बैंक तत्काल चुनावी बॉन्ड जारी करना बंद कर दे."
साथ ही पीठ ने भारतीय स्टेट बैंक (SBI) को 12 अप्रैल 2019 को जारी अंतरिम आदेश से अब तक खरीदे गए चुनावी बॉन्डों का विवरण चुनाव आयोग को सौंपने का आदेश दिया.
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए कहा, 'जारी करने वाला बैंक तत्काल चुनावी बॉन्ड जारी करना बंद कर दे और 12 अप्रैल 2019 को जारी अंतरिम आदेश से अब तक खरीदे गए चुनावी बॉन्डों का विवरण भारतीय स्टेट बैंक (SBI) चुनाव आयोग को सौंपे.'
पीठ, जिसमें जस्टिस संजीव खन्ना, बीआर गवई, जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा भी शामिल थे, ने कहा कि कंपनियों को असीमित फंडिंग की अनुमति देने के लिए कंपनी अधिनियम की धारा 182(1) के प्रावधान को हटाना मनमाना और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है.
पीठ ने अपने फैसले में कहा, 'प्रतिनिधित्व कानून, 1951 के सेक्शन 29(C)(1), वित्त अधिनियम 2017 के सेक्शन 137, कंपनी अधिनियम के सेक्शन 182(3) में वित्त अधिनियम, 2017 के सेक्शन 154 की ओर से किए गए संशोधन और वित्त अधिनियम 2017 की ओर से सेक्शन 13ए(बी) में किए गए संशोधन अनुच्छेद 19(1)(A) का उल्लंघन करते हैं और इसलिए असंवैधानिक हैं."
अदालत ने यह भी पाया कि कंपनियों को असीमित धन देने की अनुमति देने वाला प्रावधान मनमाना और असमान है. इसका मतलब यह है कि कंपनियां अब राजनीतिक दलों को असीमित मात्रा में दान नहीं दे सकेंगी.
पीठ ने कहा,’ एंक आदमी की तुलना में एक कंपनी की ओर से राजनीतिक दलों को दिए गए चंदे का असर ज्यादा होता है. अगर कोई आदमी चंदा देता है तो वो उसका निजी रुझान दर्शाता है लेकिन अगर कंपनी देती है तो इसमें कोई दो राय नहीं कि अपना व्यापारिक लाभ देख रही है. सेक्शन 182 में संशोधन पूरी तरह से मनमाना है जो कि कंपनियों और एक आदमी की ओर से किए गए दान को बराबर बताता है. सेक्शन 182 में संशोधन से पहले कंपनियां केवल अपने लाभ का कुछ प्रतिशत ही दान कर सकती थी और ये घाटे और मुनाफे वाली कंपनियों के बीच अच्छी वजह से फर्क करता था. इस अंतर का मूल सिद्धांत यह था कि यह ज्यादा अच्छा है कि कंपनियां लाभ के बदले में राजनीतिक दलों को योगदान देंगी न कि आयकर लाभ के लिए.’
इस डिसीजन को देने के पीछे सुप्रीम कोर्ट ने यह तर्क दिया कि चुनावी बॉन्ड योजना संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन करती है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है. पीठ ने माना कि गुमनाम फंडिंग से राजनीतिक दलों पर अनुचित प्रभाव पड़ता है और इससे चुनाव प्रक्रिया की शुद्धता प्रभावित होती है.
अदालत ने आगे टिप्पणी करते हुए कहा, ‘धारा 182 का उद्देश्य भ्रष्टाचार और चुनावी वित्तपोषण को रोकना है. उदाहरण के लिए, सरकारी कंपनियों को योगदान देने से रोकने का उद्देश्य ऐसी कंपनियों को राजनीतिक दलों को चंदा देकर राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करने से रोकना है. सेक्शन 182 में संशोधन करके कंपनियों को असीमित चंदा की अनुमति देना चुनावी प्रक्रिया में कंपनियों के बढ़ते प्रभाव को अधिकृत करता है. यह संविधान के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के साथ 'एक व्यक्ति, एक वोट' के मूल्य में निहित राजनीतिक समानता के सिद्धांत का भी उल्लंघन है.’
अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि एसबीआई 12 अप्रैल 2019 से अब तक इलेक्ट्रॉनिक बॉन्ड के माध्यम से प्राप्त योगदान का विवरण चुनाव आयोग को सौंपे. अदालत ने कहा कि विवरण में प्रत्येक चुनावी बॉन्ड की खरीद की तारीख, बांड के खरीदार का नाम और खरीदे गए चुनावी बॉन्ड का दाम शामिल होना चाहिए.
अदालत ने कहा, ‘एसबीआई को राजनीतिक दलों की ओर से भुनाए गए प्रत्येक चुनावी बॉन्ड की डिटेल्स भी पब्लिक करना चाहिए, जिसमें भुनाने की तिथि और चुनावी बांडों का दाम शामिल है. एसबीआई को यह जानकारी इस फैसले की तारीख से तीन सप्ताह के भीतर यानी 6 मार्च, 2024 तक चुनाव आयोग को जमा करनी होगी.’
अदालत ने चुनाव आयोग को एसबीआई की ओर से साझा की गई जानकारी को प्राप्त करने के एक सप्ताह के भीतर यानी 13 मार्च, 2024 तक अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित करने का निर्देश दिया. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय राजनीति में दूरगामी परिणाम ला सकता है और राजनीतिक दलों के वित्तपोषण में ट्रांसपैरेंसी लाने की दिशा में एक अहम कदम साबित हो सकता है. साथ ही, यह उन लोगों के लिए एक झटका है जो इस योजना का इस्तेमाल गुमनाम रूप से राजनीतिक दलों को फंड देने के लिए कर रहे थे.
हालांकि, यह फैसला कुछ सवाल भी खड़े करता है. उदाहरण के लिए, यह साफ नहीं है कि पहले से जारी किए गए चुनावी बॉन्ड का क्या होगा. साथ ही, यह देखना होगा कि राजनीतिक दल अपने खर्चों को कैसे पूरा करेंगे, यह देखते हुए कि अब उनके पास गुमनाम फंडिंग का विकल्प नहीं है.
कुल मिलाकर, सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय राजनीति में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है. यह चुनाव प्रक्रिया में ट्रांसपैरेंसी और अकाउंटेबिलिटी बढ़ाने की दिशा में एक अहम कदम है. हालांकि, इसके दूरगामी प्रभावों को समझने के लिए अभी कुछ समय और इंतजार करना होगा.