…तो इस तरह अस्तित्व में आया था राजघाट, महात्मा गांधी की समाधि पर संसद में हुई थी बहस
महात्मा गांधी की शहादत का स्थान राजघाट न केवल उनका समाधि स्थल है, बल्कि यह पूरी दुनिया में अहिंसा, शांति और सादगी का प्रतीक है. यह स्थल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की यादों को संजोए हुए है और हर वर्ष लाखों लोग यहां आकर बापू को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.
Mahatma Gandhi: 30 जनवरी 1948 का दिन भारतीय इतिहास में एक गहरी छाप छोड़ गया. उस दिन सरदार वल्लभभाई पटेल, महात्मा गांधी से एक महत्वपूर्ण चर्चा के लिए बिड़ला हाउस पहुंचे थे. बातचीत लंबी खिंचती चली गई और शाम की प्रार्थना का समय हो गया. मणिबेन ने गांधी जी को समय का ध्यान दिलाया, जिसके बाद बापू, आभा और मनु के साथ प्रार्थना सभा के लिए निकल पड़े. सभा स्थल तक जाने वाले रास्ते पर बड़ी संख्या में लोग मौजूद थे. गांधी जी ने सबका अभिवादन करते हुए हाथ जोड़ लिए. इसी भीड़ में से नाथूराम गोडसे उनके पास आए और झुके. मनु को लगा कि वह पैर छूने की कोशिश कर रहा है, लेकिन अगले ही पल, गोडसे ने मनु को धक्का दिया, जिससे उनके हाथ से पुस्तक और माला गिर गई.
मनु जैसे ही उन्हें उठाने के लिए झुकीं, गोडसे ने अपनी पिस्तौल निकाल ली और गांधी जी के सीने और पेट में लगातार तीन गोलियां दाग दीं. बापू के मुंह से निकला, 'हे राम...' और उनका निर्जीव शरीर नीचे गिर गया.
महात्मा गांधी की समाधि का प्रतीक
यह भारत की स्वतंत्रता के छह महीने बाद की घटना थी, जिसने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया. गांधी जी की हत्या के अगले दिन, 31 जनवरी 1948 को उनकी अंत्येष्टि हुई. इसी स्थान को बाद में 'राजघाट' के रूप में जाना गया, जो आज महात्मा गांधी की समाधि का प्रतीक है. पत्रकार और लेखक विवेक शुक्ला, अपनी पुस्तक Gandhi’s Delhi (12 April, 1915 - 30 January, 1948 and beyond) में लिखते हैं कि उस समय देश अभी भी विभाजन के घावों से उबर नहीं पाया था. इस कठिन दौर में एक ओर शांति बनाए रखना जरूरी था, तो दूसरी ओर, दुनिया के महान नेता को अंतिम विदाई भी देनी थी.
कैसे हुआ राजघाट का निर्माण
30 जनवरी 1948 की रात करीब 9 बजे, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, गृह मंत्री सरदार पटेल और भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारी राजघाट पहुंचे. घने कोहरे और ठंड के बीच लोक निर्माण विभाग के अधिकारी और मजदूर यहां एक चबूतरा बनाने में जुटे थे, जहां अगले दिन गांधी जी का अंतिम संस्कार होना था. नेहरू कैबिनेट की बैठक में यह तय किया गया कि महात्मा गांधी की अंत्येष्टि यमुना नदी के किनारे, राजधानी के केंद्र में स्थित राजघाट पर होगी. पुलिस के इंस्पेक्टर जनरल डब्ल्यू. वी. संजीवी को कानून-व्यवस्था बनाए रखने का निर्देश दिया गया.
गांधी जी की अंत्येष्टि के बाद, राजघाट कई सालों तक बंजर और सुनसान पड़ा रहा. 1950 के बाद सरकार ने इसे विकसित करने की योजना पर काम शुरू किया. प्रधानमंत्री नेहरू चाहते थे कि राजघाट का डिजाइन प्रसिद्ध अमेरिकी आर्किटेक्ट फ्रैंक लॉयड राइट तैयार करें. लेकिन संसद में विपक्ष ने इसका विरोध किया और जोर दिया कि गांधी जी की समाधि का डिज़ाइन भारतीय वास्तुकार ही बनाए. इसके बाद, 1956 में यह जिम्मेदारी भारतीय वास्तुकार वानू जी. भूपा को सौंपी गई. भूपा ने महात्मा गांधी की सादगी को ध्यान में रखते हुए एक सरल, लेकिन प्रभावी डिज़ाइन तैयार किया. समाधि स्थल को एक वर्गाकार चबूतरे के रूप में बनाया गया, जिस पर गांधी जी के अंतिम शब्द 'हे राम' अंकित किए गए. इसके चारों ओर हरियाली और खुला स्थान रखा गया, जिससे यह स्थल शांत और पवित्र अनुभव दे. राजघाट परिसर की लैंडस्केप डिज़ाइनिंग ब्रिटिश-भारतीय बागवानी विशेषज्ञ एलिश पर्सी लैंकस्टर ने की, जो उस समय भारत सरकार के बागवानी विभाग से जुड़े थे.
संसद में हंगामा और निर्माण की प्रक्रिया
राजघाट के निर्माण को लेकर संसद में हंगामा भी हुआ. प्रधानमंत्री नेहरू ने लोक निर्माण विभाग (CPWD) के चीफ आर्किटेक्ट हबीब रहमान और चीफ इंजीनियर टी. एस. वेदागिरी को इस प्रोजेक्ट का नेतृत्व करने के लिए चुना. वेदागिरी और हबीब रहमान ने राजघाट के लिए कई डिज़ाइनों पर अध्ययन किया. शुरुआत में, एक डिज़ाइन दक्षिण भारतीय मंदिरों की वास्तुकला से प्रभावित था, लेकिन इसे अस्वीकृत कर दिया गया. अंततः वानू जी. भूपा के सरल और भारतीय संस्कृति से जुड़े डिज़ाइन को स्वीकार किया गया.
1951 में विनोबा भावे जब दिल्ली आए, तो वे अपने 75 साथियों के साथ राजघाट पर ही रुके. प्रधानमंत्री नेहरू उन्हें किसी सरकारी गेस्ट हाउस में ठहराना चाहते थे, लेकिन भावे ने सादगीपूर्ण जीवन को प्राथमिकता देते हुए इसे ठुकरा दिया. उस समय तक, राजघाट पूरी तरह विकसित नहीं हुआ था और एक बंजर स्थान की तरह था.
'30 जनवरी मार्ग' का नामकरण
दिल्ली में स्थित 30 जनवरी मार्ग, जहां गांधी स्मृति भवन (पूर्व में बिड़ला हाउस) स्थित है, महात्मा गांधी की स्मृति से जुड़ा है. यही वह स्थान है, जहां बापू ने अपने जीवन के आखिरी 144 दिन बिताए थे. पहले इसे 'अल्बुकर्क रोड' कहा जाता था, लेकिन गांधी जी की याद में इसका नाम '30 जनवरी मार्ग' रखा गया.
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