Lok Sabha Elections 2024: चार हफ्तों के बाद देशभर में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं. भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस समेत सभी राष्ट्रीय और राज्यों की पार्टियां अपनी पूरी ताकत से जुट गई हैं.
इस बीच भाजपा के लिए SWOT यानी Strengths, Weaknesses, Opportunities, Threats का जिक्र होना लाजमी है. क्योंकि भाजपा लगातार तीसरी बार सत्ता में आने का दम भर रही है. उधर, कांग्रेस समेत विपक्ष की पार्टियां देश में मोदी लहर को काबू करने में जुटी हैं.
नरेंद्र मोदीः 10 वर्षों तक प्रधान मंत्री रहने के बावजूद नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता आसमान में है. वह अभी भी वैश्विक नेताओं की हाई रेटिंग लिस्ट में शामिल हैं. पीएम बीजेपी और एनडीए के लिए सबसे बड़े 'वोटों का सौदागर' बने हुए हैं. भाजपा के प्रमुख प्रचारक के रूप में पीएम मोदी हर चुनाव में नए नारे और विचारों के साथ पार्टी कार्यकर्ताओं-मतदाताओं को प्रेरित और सक्रिय करने में सक्षम रहे हैं.
संदेश और संदेशवाहकः पीएम मोदी लोकसभा चुनाव को राष्ट्रीय चुनाव में बदलने में सफल रहे हैं. इतना कि उनका नाम पार्टी के लिए नारा बन गया है. 'अच्छे दिन आने वाले हैं' से लेकर 'पीएम मोदी की गारंटी' और 'मोदी का परिवार' तक पीएम मोदी की चुनाव जीतने की क्षमता पार्टी के भरोसे को दिखाता है. पीएम मोदी बीजेपी और एनडीए के लिए संदेशवाहक और संदेश दोनों बन गए हैं.
इलेक्शन इंक: पीएम मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी 'इलेक्शन इंक' में बदल गई है. फिलहाल बीजेपी की तरह कोई भी पार्टी चुनाव नहीं लड़ती. नगरपालिका से लेकर लोकसभा तक, भाजपा हर चुनाव एक जैसी ताकत के साथ चुनाव लड़ती है. 'पन्ना प्रमुख, मेरा बूथ, सबसे मजबूत' जैसी नई सोच के साथ नई भाजपा ने भारत में चुनावी लड़ाई को पूरी तरह से कॉर्पोरेट बना दिया है.
वैचारिक खोज: नई भाजपा अब अपनी विचारधारा और सांस्कृतिक एजेंडे को लेकर काफी उत्साहित है. अयोध्या में राम मंदिर का भव्य उद्घाटन इसका ताजा उदाहरण है. भाजपा के लिए हर मंदिर का जीर्णोद्धार उनके सांस्कृतिक पुनरुत्थान का एक अभ्यास है. अनुच्छेद 370 को सफलतापूर्वक निरस्त करना और सीएए को लागू करना भाजपा के अपने वैचारिक एजेंडे को आगे बढ़ाने है. साथ ही राजनीतिक लाभ लेने के आत्मविश्वास को दर्शाता है.
विकास की लहर: विशेषकर गरीबों के लिए सरकारी योजनाओं का सफलतापूर्वक लागू करना भाजपा के लिए तुरुप का इक्का बनकर उभरा है. मोदी सरकार से पहले भारत को खराब योजनाओं वाले देश के रूप में जाना जाता था. नए तकनीकी इनोवेशन और सख्त निगरानी प्रणालियों के साथ पीएम मोदी और बीजेपी अपने पक्ष में एक स्थायी 'लाभार्थी' (लाभार्थी) लहर हासिल करने में सफल रही है.
दक्षिण की बेचैनीः इसमें कोई संदेह नहीं है कि पीएम मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी ने भारतीय राजनीति के मुख्य ध्रुव के रूप में कांग्रेस पार्टी की जगह ले ली है. अपनी बड़ी सफलता के बावजूद पार्टी को अभी भी भारत के कई हिस्सों में सफलता नहीं मिली है. दक्षिणी राज्यों में चुनौती देना तो दूर की बात है, यहां अभी भी भाजपा कोई बड़ा खिलाड़ी नहीं उभार पाई है. इस बार कर्नाटक भी भाजपा के हाथ से निकल गया है.
अधिकतम सीमा पारः गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, बिहार और यहां तक कि कर्नाटक जैसे राज्यों में भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनावों में करीब-करीब जीत हासिल की. पार्टी के लिए 2024 में इन राज्यों में अपना प्रदर्शन बेहतर करना काफी कठिन है. क्योंकि यहां कहानी संपूर्ण हिंदी पट्टी राज्य की है. इसलिए भाजपा को 2024 के आम चुनाव में एक्स फैक्टर के बिना 370 सीटों के अपने लक्ष्य को हासिल करने में संघर्ष करना पड़ सकता है.
स्पीड: राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अपने वोट और सीटों की संख्या में वृद्धि की. इस बार पार्टी ने इन तीनों राज्यों में जीत हासिल की है और स्पीड को बढ़ाया है. इस जीत का असर हम लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा की उम्मीदवारों की लिस्ट में पहले से ही देख रहे हैं. पार्टी अपनी संभावनाओं को लेकर बहुत आश्वस्त है. नए चेहरों के साथ प्रयोग करने और यहां तक कि उन मंत्रियों को भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार है, जो अब तक राज्यसभा में रहकर खुश थे.
शालीनता: 2024 के लिए तय हो चुका सौदा पार्टी के लिए सबसे बड़ा खतरा है. इसके कई समर्थकों और विरोधियों के लिए मुकाबला शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया है. इससे पार्टी कार्यकर्ताओं और मतदाताओं में एक तरह की आत्मसंतुष्टि पैदा हो सकती है, जिससे भाजपा को कुछ सीटों का नुकसान हो सकता है. ईमानदारी से कहें तो नई भाजपा कोई मौका नहीं छोड़ती और अंत में इसका कोई खास महत्व नहीं रह जाएगा.
INDIA ब्लॉक पर नया चेहरा: INDIA ब्लॉक एक संकट से दूसरे संकट की ओर लड़खड़ा रहा है, लेकिन अगर इसके नेता और पार्टियां एकजुट हो जाएं तो वे एनडीए को 'अब की बार, 400 पार' जैसी ऐतिहासिक जीत से वंचित भी कर सकते हैं. हालांकि भाजपा की इस पर पैनी नजर है.
अगर जनमत सर्वेक्षणों पर विश्वास किया जाए, तो सबसे पुरानी पार्टी लोकसभा चुनावों में कैसा प्रदर्शन करेगी ये तो वक्त ही बताएगा. दिलचस्प बात सिर्फ ये है कि क्या यह 2019 के मुकाबले अपना प्रदर्शन बेहतर कर पाएगी? जहां बीजेपी 'मिशन 370' की बात कर रही है, वहीं क्या कांग्रेस विपक्ष में रहने तक का आंकड़ा पार कर पाएगी.
अखिल भारतीय पार्टी: कांग्रेस एकमात्र सच्ची अखिल भारतीय पार्टी बनी हुई है, हालांकि उनकी संख्या बहुत कम है. गिरावट के बावजूद पार्टी की तीन राज्यों कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश में सरकारें हैं. निस्संदेह यह विपक्षी गुट में बराबरी का पहला स्थान है. 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 19% से ज्यादा वोट मिले. यह दोहरे अंक में वोट पाने वाली एकमात्र विपक्षी पार्टी थी. इसलिए हार और गंभीर दौर से गुजरने वाली कांग्रेस विपक्षी पार्टियों से बहुत आगे है.
राहुल की यात्रा: पहले 'भारत जोड़ो यात्रा' और फिर 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा'. हाल ही में कांग्रेस की ओर से ये एक बड़ा आयोजन रहा है. इसके जरिए कांग्रेस खुद को प्रासंगिक बनाने और कुछ ईमानदारी दिखाने की कोशिश कर रही है. हालांकि जूरी अभी भी पार्टी के चुनावी भाग्य पर इन यात्राओं के प्रभाव पर विचार कर रही है.
पिछले रिकॉर्ड के अनुसार राहुल गांधी पिछले साल से बहुत या कुछ हद तक व्यस्त और सक्रिय हैं. रोड शो, ट्रक की सवारी, आम लोगों से मुलाकात उनके कैंपेन में शामिल रहा. इन आयोजनों ने राहुल गांधी को अपनी 'पप्पू छवि' से छुटकारा पाने में मदद की है. इन यात्राओं से राहुल खुद को और कांग्रेस को नुक्कड़ और ड्राइंग रूम में चुनावी चर्चा में शामिल करने में भी सफल रहे हैं.
वैचारिक कवच: भाजपा के बाद कांग्रेस ही एकमात्र मुख्यधारा की पार्टी है जो कुछ वैचारिक प्रतिबद्धता का दावा कर सकती है. धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद अब चुनाव नहीं जीत सकते, इसलिए कांग्रेस शायद अवसरवाद की ओर आगे बढ़ रही है.
कमजोरियों
पुराना रागा: कांग्रेस पार्टी करीब 10 वर्षों से वही पुराना राग अलाप रही है. राहुल गांधी बीजेपी-आरएसएस गठबंधन की कहानी सुनाते हैं. उन्हें और उनकी पार्टी को पीएम मोदी और बीजेपी से मुकाबला करने के लिए नए नारे और विचार खोजने की जरूरत है.
पार्टी में फूट: पिछले 10 वर्षों में ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर मिलिंद देवड़ा तक राहुल गांधी के कई तथाकथित करीबी पार्टी छोड़ चुके हैं. राहुल के प्रति निष्पक्ष रहें लोगों में कई वर्तमान मुख्यमंत्रियों में से कई पूर्व कांग्रेस सदस्य हैं. उन्होंने उनके समय से पहले ही पार्टी छोड़ दी थी, लेकिन राहुल के नेतृत्व में ये निकासी ज्यादा हुई. यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो जल्द ही हमें कांग्रेस-मुक्त भारत और कांग्रेस-युक्त विपक्ष मिल सकता है.
गांधी परिवार पर पूरी निर्भरता: कांग्रेस पिछले 10 वर्षों में नेतृत्व का नया स्तर खोजने में विफल रही है. इसलिए गांधी परिवार पर पूरी निर्भरता है. मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी अध्यक्ष हैं, फिर भी सभी निर्णय गांधी परिवार या उनके परामर्श से ही लिए जा रहे हैं. इससे पार्टी में नेतृत्व का विकास रुक रहा है.
पिछड़ों में अग्रणी: राहुल और कांग्रेस के पास विपक्षी गुट के निर्विवाद नेता के रूप में उभरने का शायद आखिरी मौका है. अगर पार्टी 2024 के लोकसभा चुनावों में अपनी सीटें और वोट शेयर बढ़ाने में कामयाब हो जाती है, तो वह पीएम मोदी और बीजेपी का असली विरोधी होने का दावा कर सकती है. इससे राज्य चुनावों के दौरान मुस्लिम और अन्य विपक्षी वोट हासिल करने में मदद मिल सकती है.
कांग्रेस बनाम अन्यः अगर राहुल गांधी और कांग्रेस नहीं तो कौन पीएम मोदी और बीजेपी के लिए चुनौती पेश कर सकता है? जब भी कोई एक पार्टी हावी हो जाती है, जैसे कि अतीत की कांग्रेस और वर्तमान में मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा, तो हमेशा एकजुट विपक्ष की बात होती है, लेकिन कांग्रेस के बिना एकजुट विपक्ष क्षेत्रीय नेताओं और पार्टियों के जमावड़े के अलावा और कुछ नहीं है.
विचार जरूरी: यदि ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली टीएमसी पश्चिम बंगाल में सभी लोकसभा सीटें जीतती है, तो यह मात्र 42 सीटें होंगी. टीएमसी अन्य राज्यों में कुछ सीटें जीतती है, लेकिन कुल मिलाकर 50 से ज्यादा सीटें जीतने की संभावना नहीं है. तमाम कोशिशों के बावजूद आम आदमी पार्टी दिल्ली और पंजाब से आगे नहीं बढ़ पाई है. सबसे गंभीर स्थिति में वह अधिकतम 30-40 सीटें जीतने की उम्मीद कर सकती है.
डीएमके तमिलनाडु में सभी सीटें जीत जाती है, तो यह सिर्फ 39 तक पहुंच सकती है. पूरे भारत में 5 या 10 सीटें और जोड़ दें, तो इसकी संख्या केवल 50 के आसपास होगी. एसपी और बीएसपी यूपी में 100% स्कोर करते हैं तो 80 लोकसभा सीटें जीत सकते हैं, लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में सपा की सर्वश्रेष्ठ 36 सीटें और 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा की 21 सीटें थीं.
सीटों में गिरावट का जोखिम: कांग्रेस इस बार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ेगी. यदि पार्टी 2019 के मुकाबले अपनी सीटों में सुधार करने में विफल रहती है, तो यह बेहद गिरावट की ओर जा सकती है और भाजपा का कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा वास्तविकता बन सकता है.
गांधी परिवार के लिए करो या मरो की स्थितिः कांग्रेस की किस्मत नेहरू-गांधी परिवार की अपील से अटूट रूप से जुड़ी हुई थी, जो धीरे-धीरे ही सही अब खत्म हो रही है. गांधी परिवार अपने गढ़ में हार रहा है. राहुल गांधी ने अमेठी छोड़ दिया है. सोनिया गांधी राज्यसभा चली गई हैं. प्रियंका गांधी रायबरेली से लड़ेंगी या नहीं इस पर अभी भी सवालिया निशान बना हुआ है.
यदि गांधी परिवार अपने लिए चुनाव नहीं जीत सकता, तो क्या वे पार्टी का नेतृत्व कर पाएंगे? ये सवाल आज हर किसी की जुबान पर है. करिश्माई नेताओं की गैरमौजूदगी के कारण गांधी परिवार पार्टी की कमान संभालने में सफल रहा है. उनके समर्थकों ने कार्यकर्ताओं को आश्वस्त किया है कि गांधी गोंद पार्टी को एकजुट रखे हुए है.