नाबालिग लड़की के साथ रेप और हत्या करने वाले व्यक्ति को आजीवन कारावास, फिर मृत्युदंड और फिर आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है. लगभग 25 साल पहले, पिंपरी चिंचवाड़ में अपने घर के पास एक 40 साल के व्यक्ति को 10 साल की लड़की के बलात्कार और हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. पुणे की एक कोर्ट ने उसे दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई. हालांकि, बॉम्बे हाई कोर्ट ने उसके अपराध को गंभीर पाया और उसे मौत की सज़ा सुनाई. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसकी मौत की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया.
मामला 24 अक्टूबर 1999 का है, जब हरेश राजपूत नाम के शख्श ने अपने घर के पास खेल रही एक नाबालिग लड़की को चॉकलेट का लालच देकर अपने साथ ले गया था. इसके बाद उसने लड़की के साथ बलात्कार किया और फिर उसका गला घोंट दिया. उस समय राजपूत के परिवार के सदस्य काम पर गए हुए थे. इसलिए उसने लड़की के शव को कपड़े में लपेटकर अपनी चारपाई के नीचे रख दिया. इसके बाद उसने शराब पी और कुछ घंटों तक टीवी देखा.
लड़की के लापता होने पर उसके भाई-बहन और माता-पिता ने उसकी तलाश की. उसका पता न लगने पर उसकी मां मदद के लिए स्थानीय पुलिस स्टेशन गई. उधर,जब हरेश का बेटा और मां घर आए, तो राजपूत ने उन्हें लड़की की हत्या के बारे में बताया, लेकिन उन्हें इस घटना के बारे में किसी को न बताने की धमकी दी.
हालांकि, राजपूत के सो जाने के बाद हरेश का 13 साल का बेटा पुलिस स्टेशन गया और पुलिस को पूरे घटना की जानकारी दी. इसके बाद पुलिस और नाबालिग लड़की के परिवार के सदस्य राजपूत के घर आ गए और उसे बलात्कार और हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. राजपूत के घर से लड़की का शव बरामद होने के बाद मेडिकल रिपोर्ट से पुष्टि हुई कि यौन उत्पीड़न के बाद गला घोंटकर उसकी हत्या की गई थी.
इस मामले की सुनवाई पुणे की एक अदालत में हुई, जहां 12 गवाहों से पूछताछ की गई. ट्रायल कोर्ट ने हरेश राजपूत को भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (बलात्कार) और 302 (हत्या) के तहत अपराधों का दोषी पाया और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई.
इसके बाद हरेश ने निचली अदालत के आदेश को बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती दी. साथ ही, राज्य सरकार ने भी सज़ा बढ़ाने की मांग करते हुए हाई कोर्ट का रुख किया. तथ्यों और परिस्थितियों पर गौर करने के बाद, हाई कोर्ट ने पाया कि ये आजीवन कारावास को मृत्युदंड में बदलने के लिए उपयुक्त मामला है.
1 जनवरी, 2008 को दोषी को मृत्युदंड सुनाते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में उचित सजा न देने में अनुचित रियायत या उदार रवैया संभावित अपराधियों को अनुमति देने या उन्हें प्रोत्साहित करने के बराबर होगा. समाज अब ऐसे गंभीर खतरों को बर्दाश्त नहीं कर सकता. बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के मामलों में कोर्ट को समाज की ओर से न्याय के लिए की जाने वाली जोरदार पुकार सुननी चाहिए और उचित सजा देनी चाहिए.
हरेश राजपूत की ओर से एक बार हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने 20 सितम्बर 2011 को हरेश की मृत्युदंड की सजा को रद्द कर दिया और उसे आजीवन कारावास की सजा में बदल दिया. सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि जहां तक अपीलकर्ता की सजा का सवाल है, हमें निचली अदालतों के सुविचारित निर्णयों में हस्तक्षेप करने का कोई ठोस कारण नहीं मिला है और हम आईपीसी की धारा 302, 376 के तहत उसकी सजा की पुष्टि करते हैं. जहां तक सजा के हिस्से का सवाल है, ऊपर उल्लिखित कानून के मद्देनजर, हमारा मानना है कि ये मामला 'दुर्लभतम मामलों' में नहीं आता है. हाई कोर्ट की ओर से सजा बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं था.