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कौन थे कारगिल के 'शेरशाह'? नाम सुनते ही कांप जाती थी पाकिस्तानियों की रूह

Vikram Batra: कारगिल के हीरो कैप्टन विक्रम बत्रा को 'दिल मांगे मोर' के नारे की वजह से जाना जाता है. विक्रम बत्रा को एक ऐसे लीडर के तौर पर याद किया जाता है जिसने मुश्किल परिस्थिति में भी अपने जवानों का साथ नहीं छोड़ा और उनकी जान बचाने की कोशिश की. इसी कोशिश में वह खुद शहीद हो गए. आज उन्हीं की शहादत का दिन है. यह महीना कारगिल के उस ऐतिहासिक युद्ध का है जिसके बाद पाकिस्तान ने कभी भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने की हिम्मत नहीं की. 

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Edited By: India Daily Live
Captain Vikram Batra
Courtesy: IDL

कारगिल का युद्ध भारत और पाकिस्तान के इतिहास का एक अहम अध्याय है. साल 1999 में लड़े गए इस युद्ध को 25 साल हो चुके हैं लेकिन इस युद्ध के चर्चित चेहरों को याद करें तो लगता है जैसे कल की ही बात है. इस युद्ध के कई जांबाज लड़ाके ऐसे थे जिनकी उम्र बेहद कम थी लेकिन उन्होंने अपनी उम्र से दोगुना ज्यादा साहस दिखाया. कारगिल के युद्ध के समय सिर्फ 25 साल के रहे कैप्टन विक्रम बत्रा को ऐसे ही साहस की वजह से जाना जाता है. कारगिल के युद्ध के दौरान 7 जुलाई 1999 को शहीद हुए कैप्टन विक्रम बत्रा को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.

कियारा आडवाणी और सिद्धार्थ मल्होत्रा की फिल्म 'शेरशाह' कैप्टन विक्रम बत्रा के जीवन पर ही आधारित है. विक्रम बत्रा युद्ध के दौरान और अपने निजी जीवन में भी 'ये दिल मांगे मोर...' का नारा बार-बार देते थे. विक्रम बत्रा की बहादुरी, निडर रवैये और बेखौफ अंदाज की वजह से ही उन्हें 'शेरशाह' नाम मिला. पाकिस्तानी सेना भी उनसे बहुत खौफ खाती थी और इस खौफ का कारण खुद विक्रम बत्रा ही बार-बार बने.

जुड़वा भाई थे विक्रम बत्रा

9 सितंबर 1974 को जीएल बत्रा और कमलकांता बत्रा के जुड़वा बेटों का जन्म हुआ. मां ने अपने बेटों का नाम लव और कुश रखा. विक्रम बत्रा लव थे और विशाल बत्रा को कुश नाम मिला. बचपन से ही कैंट एरिया के पास रहने की वजह से विक्रम ने सेना को नजदीक से देखा और शायद यहीं से मन में बीज बो लिए. पढ़ाई के साथ-साथ विक्रम बत्रा खेल में भी खूब सक्रिय रहे. 12वीं तक की पढ़ाई पालमपुर से करने के बाद विक्रम ने डीएवी कॉले, चंडीगढ़ से ग्रेजुएशन किया. कॉलेज के समय से ही वह एनसीसी में भी सक्रिय हो गए. 1995 में उनका सेलेक्शन मर्चेंट नेवी में हो गया लेकिन वह नहीं गए.

1995 में ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद विक्रम बत्रा ने पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ में एमएम (अंग्रेजी) में एडमिशन लिया. अगले ही साल यानी 1996 में CDS की परीक्षा दी. इलाहाबाद SSB से रेकमेंड हुए और ट्रेनिंग के लिए एकेडमी चले गए. दिसंबर, 1997 में ट्रेनिंग पूरी हुई तो उन्हें पहली पोस्टिंग जम्मू के सोपोर में मिली. 1998 में उन्हें पांच महीने की ट्रेनिंग के लिए मध्य प्रदेश भेजा गया. ट्रेनिंग पूरी करके लौटते समय ही कैप्टन विक्रम बत्रा ने अपनी प्रेमिका डिंपल चीमा से युद्ध पर चर्चा की. डिंपल से ही विक्रम बत्रा ने कहा था, 'मैं या तो तिरंगे को लहराकर आऊंगा या फिर तिरंगे में लिपटा हुआ आऊंगा लेकिन मैं आऊंगा जरूर.' 

क्यों मशहूर हुए कैप्टन विक्रम बत्रा?

1 जून, 1999 में विक्रम बत्रा की टुकड़ी को कारगिल में भेजा गया. शुरुआत में हंप और राकी नाम में जीत के बाद ही लेफ्टिनेंट विक्रम बत्रा को प्रमोशन मिला और वह कैप्टन बन गए. कैप्टन विक्रम बत्रा को पहला टारगेट मिला पीक 5140 को पाकिस्तानी सेना से मुक्त कराने का. कैप्टन विक्रम बत्रा की टीम पूर्व की दिशा से टारगेट की ओर बढ़ी और बिना शत्रु को भनक लगे ही उसके नजदीक तक पहुंच गए. 

कैप्टन विक्रम बत्रा ने यहां अपने सैनिकों को पीछे रखा और खुद आगे बढ़कर अगुवाई की. उन्होंने पर सीधे हमला बोला और चार दुश्मनों को मार डाला. विक्रम बत्रा और उनकी टीम आगे बढ़ती रही. 20 जून 1999 को कैप्टन की टीम पीक 5140 पर कब्जा जमा लिया. अगला टारगेट मिला पीक 4875 का. इस चोटी की मुश्किल यह थी कि दोनों ओर खड़ी ढलान थी और एकमात्र रास्ते पर दुश्मनों की नाकेबंदी थी. कैप्टन विक्रम बत्रा ने फैसला किया कि एक छोटे से पठार के पास से हमला किया जाएगा.

अब लड़ाई-आमने की थी. कैप्टन विक्रम बत्रा ने पांच दुश्मनों को ढेर कर दिया. वह आगे बढ़ ही रहे थे लेकिन वह दुश्मन के स्नाइपर के निशाने पर आ गए. गोली लगने के बाद बुरी तरह घायल हुए कैप्टन विक्रम बत्रा ने हार नहीं मानी. उन्होंने रेंगते हुए एक ग्रेनेड फेंका और दुश्मन को मौत के घाट उतार दिया. इस युद्ध में आगे रहकर उन्होंने एक असंभव काम को संभव कर दिखाया. इस तरह शहीद हुए कैप्टन विक्रम बत्रा को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.