One Nation One Election: भारत एक लोकतांत्रिक देश है, यहां की लगभग 145 करोड़ की आबादी पूरी तरह से आजाद है. यहां की जनता अपने जीवन के हर एक निर्णय को अपनी स्वेच्छा से लेने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है. विविधताओं से भरे इस देश में लोकतंत्र के बचे रहने का सबसे बड़ा कारण इस देश का संविधान है. ऐसे में संविधान में बदलाव एक ना केवल मुद्दा बल्कि एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. क्योंकि इसमें किसी तरह की एक छोटी चूक भारत में भी सीरिया और बांग्लादेश जैसे माहौल को उत्पन्न कर सकती है.
केंद्र सरकार संविधान में एक नया संशोधन लाने की तैयारी में है. मोदी सरकार द्वारा आज संसद में 129वां संविधान संशोधन बिल वन नेशन वन इलेक्शन पेश किया जा रहा है. जिसके तहत पूरे देश में एक साथ चुनाव कराए जाने के मुद्दे पर चर्चा की जाएगी. हालांकि आपको बता दें कि ये चर्चा पहली बार नहीं हो रही है. इस विषय पर संविधान सभा में भी चर्चा की गई थी.
भारत में चुनाव प्रक्रिया और चुनाव आयोग की शक्तियों को लेकर संविधान सभा में चर्चा किया गया था. इस दौरान डॉ भीम राव अंबेडकर और संविधान सभा के दूसरे संदस्यों ने एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर अपनी राय रखी थी. हालांकि संविधान सभा की ओर से इसे सहमति नहीं मिल पाई थी. लेकिन आज एक बार फिर इतिहास का पन्ना वापस पलटा है और इस मुद्दे पर मोदी सरकार के दौरान चर्चा की जा रही है. अब सवाल यह उठता है कि क्या सरकार का इस बिल से जनता के संवैधानिक अधिकारों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
भारत के लोकतंत्र की रक्षा का कमान देश के हर एक नागरिक के ऊपर है. यहां की जनता हर पांच साल पर अपने सरकार को चुनते हैं. 18 वर्ष या उससे ऊपर का व्यक्ति वोट देता है. राज्य प्रमुख को चुनने के लिए विधानसभा चुनाव कराए जाते हैं. वहीं प्रधानमंत्री के चुनाव के लिए लोकसभा चुनाव होते हैं. मोदी सरकार का मानना है कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग समय पर चुनाव होने से सरकार अपने काम नहीं कर पाती है.
सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि साल भर किसी ना किसी राज्य में चुनाव और उपचुनाव होता रहता है. जिसके कारण सरकार अपने काम पर फोकस नहीं कर पाती है. जनता को उतना समय नहीं मिल पाता है जितने के वो हकदार हैं. साथ ही सरकार की ओर से यह भी तर्क दिया गया कि लगातार अलग-अलग चुनाव कराए जाने के कारण सरकार के खर्च काफी बढ़ जाते हैं. ऐसे में पूरे देश में एक साथ चुनाव करना सही होगा.
मेरी जानकारी के मुताबिक ONOE का प्रावधान कहता है कि अगर सरकार के खिलाफ इस बीच अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है और सरकार गिरती है या विधानसभा भंग होता है तो अगला चुनाव मात्र उतने समय के लिए ही होगा जब तक अगला टर्म के लिए चुनाव होता है. मानें की अगर 2029 से 2034 तक लोकसभा का टर्म है. इसी बीच किसी राज्य में अचानक फरवरी 2033 में सरकार गिर जाती है तो उस समय केवल तब तक के लिए ही चुनाव कराए जाएंगे जबतक की अगला लोकसभा चुनाव नहीं होता है. या फिर उसी सरकार को अपने टर्म को पूरा करना पड़ेगा जिनके पास पर्याप्त संख्याबल नहीं है. जिसकी वजह से जनता को विवश होकर उस सरकार की सुननी पड़ेगी जिसे शायद वो सत्ता में नहीं रखना चाहते हों?
दूसरी बात यह भी है कि अगर सरकार यह तर्क देती है कि एक साथ चुनाव कराने से सरकारी पैसे बचेंगे तो क्या कुछ महीनों के लिए उपचुनाव कराने पर पैसों की बर्बादी नहीं होगी? हालांकि इन सभी सवालों पर संसद में चर्चा की जाएगी, उसके बाद ही इस विधेयक को पारित किया जाएगा.
सरकार को इस बिल को पास कराने के लिए लोकसभा में 361 और राज्यसभा में 154 सांसदों के समर्थन की जरूरत है. ऐसे में विपक्षी की भूमिका बेहद अहम है. हालांकि अभी तक अधिकतर विपक्षी पार्टियों द्वारा इस बिल का समर्थन जताया गया है. हालांकि अगर सांसदों की संख्या पर गौर किया जाए तो लोकसभा में NDA गठबंधन के लगभग 294 सांसद है. वहीं राज्यसभा में लगभग 112 सांसद नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस का हिस्सा हैं. ऐसे में सरकार को विपक्षी दलों को अपने तर्क से संतुष्ट करना पड़ेगा. जिसके बाद अगर यह पास हो भी जाता है तो इसे 2029 लोकसभा चुनाव के बाद ही लागू किया जाएगा.
बता दें कि देश में पहले भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हो चुके हैं. देश को 1952 में रिपब्लिक घोषित किया गया, जिसके बाद पहला चुनाव पूरे देश में एकसाथ हुआ. जिसके बाद फिर 1957 में भी एकसाथ चुनाव कराए गए. लेकिन 1959 में तत्कालीन पीएम नेहरू द्वारा केरल की सरकार को बर्खास्त करने के बाद ये समस्या होने लगी. इसके बाद सत्ता की लालच में कई राज्यों में सरकार गिरने लगी, जिसके बाद कई जटिलताओं के कारण ये सिस्टम ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया है.