Citizenship Amendment Act: लोकसभा चुनाव को लेकर तैयारियां जोरों पर हैं और मौजूदा समय में सरकार की ओर से लिए गए हर फैसले को आगामी चुनावों से ही जोड़ कर देखा जा रहा है. इस बीच रविवार को केंद्र सरकार ने 2019 में पारित नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को लागू करने के लिए अधिसूचना जारी कर दी है. सीएए को लेकर देश भर में अलग-अलग राजनीतिक प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है लेकिन विपक्ष की ओर से एकतरफा विरोध देखने को मिल रहा है. सीएए को लेकर सबसे पहला विरोध पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दर्ज कराया जिन्होंने इसे देश को बांटने वाला कानून बताया.
भले ही विपक्ष इस कानून को बांटने वाला या नागरिकता छीनने वाला कानून बताए लेकिन चुनावी बाजी में ये बीजेपी की ओर से मारा गया वो मास्टरस्ट्रोक है जो कि ममता बनर्जी के गढ़ में सेंध मारने के लिए खेला गया है. सीएए लागू होने के बाद पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से भारत में शरणार्थी बनकर रह रहे गैर-मुस्लिमों को नागरिकता मिलना आसान हो गया है तो साथ ही पूरी प्रक्रिया को ऑनलाइन और आसान रखकर बड़ा चुनावी दांव भी खेल दिया है.
सीएए का सबसे ज्यादा फायदा पश्चिम बंगाल में रहने वाले मतुआ (बांग्लादेश से आए हिंदू) समाज को होगा जिनकी यहां अच्छी खासी संख्या है. बीजेपी ने 2019 में जैसे ही सत्ता में वापसी की उसके साथ ही उसने सीएए को लेकर प्रस्ताव पेश किया और फिर दिसंबर 2019 में संसद से पारित करने के दूसरे दिन ही राष्ट्रपति की मुहर भी लग गई. पहले भारत की नागरिकता लेने के लिए प्रवासी लोगों को कम से कम 11 साल तक रहना जरूरी था लेकिन सीएए के अंतर्गत यह 1 से 6 साल हो गई है.
पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय 1860 से रह रहा है जो कि बिना ऊंच-नीच के भेदभाव वाले हिंदू धर्म को मानता है और इस समाज के लोग हरिचंद ठाकुर को भगवान विष्णु और कृष्ण का ही अवतार मानते हैं. आजादी के बाद यह समाज पश्चिम बंगाल में आकर बस गया लेकिन बंटवारे के बाद एक हिस्सा पाकिस्तान शासित बंगाल (मौजूदा बांग्लादेश) में चला गया तो कई ऐसे परिवार भी हुए जो बाद में धार्मिक प्रताड़ना का शिकार होने के चलते भारत में आकर बसे. इसके चलते बांग्लादेश के बॉर्डर पर ठाकुरगंज नाम की एक शरणार्थी बस्ती बसाई गई जहां इस समाज के लोग आकर बसे.
1962 में प्रमथ रंजन ठाकुर ने पहली बार नादिया जिले की अनुसूचित जनजाति सीट से विधानसभा चुनाव लड़कर जीत हासिल की और इसके बाद बंगाल में लगातार यह समाज ताकतवर होता चला गया. मौजूदा समय में इस समाज की ताकत ऐसी है कि पश्चिम बंगाल की 11 लोकसभा सीटों में जीत और हार का फैसला इस समाज के वोट करते हैं. बनगांव में तो इस समाज के लोगों की संख्या 65 से 67 फीसदी है तो वहीं बची हुई 10 लोकसभा सीटों पर करीब 35-40 फीसदी वोटर्स इस समुदाय से आते हैं. कृष्णानगर, रानाघाट, मालदा उत्तरी, मालदा दक्षिणी, बर्धमान पूर्वी, बर्धमान पश्चिमी, सिलीगुड़ी, कूच बिहार, रायगंज और जॉयनगर वो लोकसभा सीटें हैं जहां इस समुदाय का वोट जीत या हार तय करता है.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी सिर्फ 2 सीटें ही जीतने में कामयाब हुई थी लेकिन राज्य में मतुआ समुदाय पर पकड़ बनाकर उसने 2019 में सीटों की संख्या को 18 पर पहुंचा दिया था. हालांकि विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी की जीत सुनिश्चित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी और नतीजन कई नेता जो चुनाव से पहले बीजेपी में शामिल हो गए थे उन्होंने वापस टीएमसी की राह पकड़ ली. ममता बनर्जी ने बीजेपी के बंगाल में सेंध लगाने के प्लान को बड़ा झटका दिया लेकिन सीएए का कानून मिशन बंगाल को नई संजीवनी दे सकते है.
जहां मतुआ समुदाय लगातार सीएए के कानून की मांग कर रहा था तो वहीं पर ममता बनर्जी इस कानून का विरोध करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं. ममता बनर्जी को जब भी मौका मिला है उन्होंने खुल कर इसका विरोध किया है. ऐसे में केंद्र सरकार ने इस नियम को लागू करने की प्रक्रिया से राज्यों को बाहर रखकर बड़ा मास्टर स्ट्रोक खेला है. बीजेपी लगातार ममता बनर्जी पर मुस्लिम परस्ती का आरोप लगाती है और सीएए को लेकर उनके विरोध को इसी दिशा में भुनाने की पूरी कोशिश भी करेगी.
अगर बीजेपी लोकसभा चुनावों में मतुआ वोटर्स के दम पर सेंध लगाने में कामयाब हो जाती है तो न सिर्फ वो ममता के गढ़ में सेंध लगा देगी बल्कि वो सियासी जमीन भी तैयार करना शुरू कर देगी जिसके दम पर वो अगले विधानसभा चुनावों में यहां भगवा फहरा सके.