हमारा देश विविधताओं से भरा है. यहां हर राज्य की अपनी एक अलग संस्कृति, वेश-भूषा, खान-पान और भाषा है. ये बातें हमारे देश के विविधता में एकता को प्रदर्शित करती हैं. तमाम विचारों और धाराओं को समेटे होने के कारण भारत को अपने सैकड़ों-हजारों सालों के इतिहास में कई समस्याओं का भी सामना करना पड़ा है. नक्सलवाद हो, अलगाववाद हो या आतंकवाद, ये समस्याएं देश के सामने लंबे समय से खड़ी रही हैं. आज हम आपको बताएंगे कि कैसे पाकिस्तान ने पंजाब में अलगाववाद को बढ़ावा दिया. क्यों पंजाब में भारत से अलग होकर एक स्वतंत्र सिख राज्य बनाने का आंदोलन शुरू हुआ.
ब्रिटिश शासन के दौरान 1940 में पहली बार ख़ालिस्तान नामक शब्द का जिक्र एक किताब में किया गया. खालिस्तान यानी ख़ालसा की भूमि. इस क्षेत्र में वर्तमान भारतीय राज्य पंजाब, चंड़ीगढ, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान के कुछ इलाके शामिल हैं. सिख अलगाववादियों की मांग रही है कि इस क्षत्र को पंजाब से अलग कर दिया जाए. यह मांग मुख्य रूप से 1970 और 1980 के दशक में अपने चरम पर थी.
साल 1967 से 1969 में जगजीत सिंह चौहान पंजाब विधानसभा के उपाध्यक्ष और बाद में पंजाब के वित्त मंत्री भी थे. बाद में ये लंदन जाकर बस गए. लंदन में इन्हें सिख होमरूल लीग का अध्यक्ष बनाया गया. बाद में इन्होंने इसका नाम बदलकर खालिस्तान आंदोलन रखा. खुफिया विभाग के सचिव रहे बी.रमण ने अपनी किताब में लिखा है, 'पाकिस्तान सेना के जनरल याहया खान ने जगजीत सिंह को बुलाया. बहुत ही गर्मजोशी के साथ उनका स्वागत किया गया. इस दौरान जगजीत सिंह को गुरूद्वारे में रखा पवित्र दस्तावेज दिया गया. वह इसे अपने साथ लंदन ले आया और इसके माध्यम से खुद को सिख नेता दिखाने कि कोशिश की.'
टेरी मिलिउस्की ने अपनी किताब ‘ब्लड फ़ॉर ब्लड फ़िफ़्टी इयर्स ऑफ़ द ग्लोबल खालिस्तान प्रोजेक्ट’ में लिखा है कि 13 अक्तूबर, 1971 को जगजीत सिंह चौहान ने न्यूयॉर्क टाइम्स में स्वतंत्र सिख राज्य खालिस्तान के लिए आंदोलन शुरू करने की बात कही थी. इसके अलावा, जगजीत सिंह ने अपने आप को खलिस्तान का राष्ट्रपति घोषित किया. जिसके प्रचार-प्रसार में होने वाला खर्च पाकिस्तान के दूतावास ने उठाया. अपने प्रचार में उसने कथित स्वतंत्र राज्य खालिस्तान के करेंसी नोट और डाक टिकट छपवाए और उन्हें प्रसारित किया.
जब जगजीत सिंह चौहान ने खालिस्तान आंदोलन की सहायता के लिए चीनी राजनयिक से मुलाकात करके आंदोलन के लिए चीन की सहायता मांगी तो चीनियों ने उसकी सहायता करने से इनकार कर दिया.
1967 मे अकाली दल ने पंजाब में पूर्ण बहुमत से अपनी सरकार बनाई. गुरनाम सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए लेकिन 250 दिन में ही आपसी मतभेद के कारण इनकी सरकार मे बगावत हो गई. लक्ष्मण सिंह के नेतृत्व वाले 16 विधायकों ने अपना अलग गुट बना लिया और अपना समर्थन कांग्रेस पार्टी को दे दिया. साल 1971 में पाकिस्तान के विभाजन से बने बांग्लादेश के उदय में भारत की भूमिका के चलते इंदिरा गांधी को जबरदस्त समर्थन मिला. इसका नतीजा यह हुआ कि उस समय हुए चुनाव में अकालियों का पत्ता साफ हो गया. इसी के बाद खालिस्तान की मांग फिर तेजी से होने लगी.
साल 1973 और1978 में अकालियों ने आनंदपुर साहिब नाम से एक प्रस्ताव निकाला. जिसमें पंजाब को बाकी राज्यों के मुकाबले ज्यादा अधिकार देने की बात कही गई थी. इसमें सुझाव दिया गया था कि केंद्र सिर्फ रक्षा, विदेश नीति, संचार और मुद्रा पर अधिकार रखे. इसके अलावा बाकी सभी पर राज्य सरकार का अधिकार हो. उधर अमेरिका में खालिस्तानी विचारक गंगा सिंह ने भी अलग से खलिस्तान की मांग शुरू कर दी.
1980 के दशक में पंजाब मे हिंसक घटनाएं बढ़ने लगीं. 1981 में पंजाब केसरी के संस्थापक और संपादक लाला जगत नारायण की हत्या कर दी गई. अप्रैल 1983 में पंजाब पुलिस के डीआईजी एएस अटवाल की गोली मारकर हत्या कर दी गई. इसी समय भिडंरावाले ने स्वर्ण मंदिर को अपना घर बना लिया. कुछ ही महीनों के बाद भिंडरावाले ने अकाल तख्त पर अपना विचार रखना शुरू कर दिया.
इन सबका नतीजा यह निकला कि पंजाब में अलगाववादी हिंसा बढ़ने लगी. खालिस्तान आंदोलन को भारत ने सुरक्षा के लिए खतरा माना है. सरकार और सिख अलगाववादियों के बीच संघर्ष की सबसे खूनी घटना 1984 में हुई. इसके लिए इंदिरा गांधी की सरकार ने 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' लॉन्च किया. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सशस्त्र अलगाववादी नेता जरनैल सिंह भिंडरावाले और उसके समर्थकों को बाहर निकालने के लिए सिखों के सबसे पवित्र स्थल स्वर्ण मंदिर में सेना भेज दी, जिससे दुनियाभर के सिख नाराज हो गए.
इसी का बदला लेने के लिए 31अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी को उनके घर पर उनके ही अंगरक्षकों गोली मार दी. इधर 1984 से लेकर अगले एक दशक तक पंजाब उग्रवाद की चपेट में रहा लेकिन इस एक दशक में जनता भी इस अशांति से तंग आ चुकी थी. समय के साथ-साथ पंजाब में खालिस्तान आंदोलन की आग कम होती चली गई. हालांकि, आज भी पंजाब और कनाडा जैसे कुछ देशों में खालिस्तान समर्थक गाहे-बगाहे आवाज उठाते रहते हैं.