मटन का जिक्र आते ही क्यों याद आ जाते हैं मुगल? हकीकत या फसाना, खुद तय कर लीजिए
भारत में मांस का जिक्र हो और मुगल याद न आएं, ऐसा हो नहीं सकता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाड़मेर की चुनावी सभा से तेजस्वी यादव पर तंज कसते हुए मुगलों को याद किया है. क्या मुगलों की वजह से मांस-मटन की संस्कृति देश में पनपी थी? आइए जानते हैं.
भारतीय राजनीति में ऐसा हो नहीं सकता कि एक सप्ताह बीत जाए और मुगलों का जिक्र न छिड़े. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजस्थान के बाड़मेर की एक चुनावी रैली के दौरान शुक्रवार को फिर मुगलों को याद किया है. उन्होंने मांसाहार के बहाने तेजस्वी यादव और राहुल गांधी पर तंज कसा है. पीएम मोदी ने कहा कि मुगलों को राजाओं को हराकर संतोष नहीं मिलता था, जब तक वह मंदिर नहीं तोड़ते थे, जब तक वह धार्मिक भावनाओं को आहत नहीं करते थे. नवरात्र में मछली खाते हुए वीडियो पोस्ट करके लोगों को भावनाओं को चिढ़ा रहे हैं. ये लोग अपने वोटबैंक इस तरह से पक्का करना चाहते हैं. अब बड़ा सवाल यह है कि मांस-मटन का जिक्र छिड़ते ही मुगल क्यों याद आ जाते हैं. क्या सच में मटन-मांस से मुगलों का कोई कनेक्शन था?
मुगलों के सख्त सल्तनत और मजबूत फौज से दुनिया वाकिफ है. कभी उनकी रसोई में झांका है आपने? कई भारतीय व्यंजनों के नाम मुगलों पर हैं. कई ऐसे रेस्त्रां हैं जिनका नाम मुगलों के नाम पर पड़ा है. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, हर शहर में कहीं न कहीं एक रेस्त्रां या ढाबे के नाम में आपको मुगल मिल जाएगा. वजह ये है कि मुगल खाने पीने के बड़े शौकीन थे. उनकी रसोई दुनियाभर में मशहूर रही.
मटन का जिक्र छिड़ते ही आज भी मुगल याद आ जाते हैं. वजह ये है कि कई लोग गलत दावा करते हैं कि मुगल अपने साथ कई व्यंजनों की रेसिपी लेकर भारत आए थे. मुगल मटन, लाहौरी चिकन, लाहौरी मटन, पेशावरी तवा चिकन, चिकन चंगेजी, अफगानी बिरयानी और अफ्लातून टिक्का जैसे व्यंजनों को लाने का क्रेडिट मुगलों को मिलता है लेकिन सच्चाई ये नहीं है.
मटन और मांसाहार के ठेकेदार नहीं हैं मुगल
भारतीय पकवानों पर रिसर्च कर रहे लेखक अनिमेष मुखर्जी बताते हैं कि आमतौर पर मांस कल्चर को मुगलों से जोड़ दिया जाता है लेकिन सच्चाई ऐसी नहीं है. भारत में मांस हजारों साल से खाया जाता है. हर क्षेत्र में मांस के अलग-अलग फ्लेवर हैं. बिरयानी हैदराबाद, कोलकाता और अवध क्षेत्र की फेमस है. कोरमा को मुगलई खाना कहा जाता है लेकिन यह भी देशज है और अलग-अलग शहरों में अलग-अलग तरीके से बनती रही है. जब मसालों का केंद्र भारत था तो जाहिर सी बात है कि पकवानों पर भी यहां का देसी तड़का दिखता. यही वजह है कि मोहम्मद बिन कासिम से लेकर बहादुर शाह जफर तक, पकवानों के तरीकों पर क्षेत्रियता का असर पड़ा.
भारत में शाकाहार जितना ही पुराना है मांसाहार!
अनिमेष मुखर्जी बताते हैं कि भारत में राजपूत भी मांसाहार के शौकीन रहे हैं. राजपूतों में भी मटन ज्यादा लोकप्रिय रहा. जंग के हालात में सैनिकों के लिए इसे बनाना आसान था. आमतौर पर हिंदू बलि देने के बाद मांस खाते थे. उस जमाने में लोग खरगोश और जंगली सुअर का भी शिकार करते थे. हर तरह के गोश्त में मटन ज्यादा लोकप्रिय था.
अनिमेष मुखर्जी बताते हैं कि ऐसा नहीं था कि सिर्फ राजपूत या लड़ाकू जातियां ही मांस खाती थीं. मिथिला के ब्राह्मण, पश्चिम बंगाल के ब्राह्मण, ओड़िया के ब्राह्मण भी जमकर मांस खाते थे. इसके अलावा शाक्त और शैव उपासक भी प्रसाद के तौर पर मांस खाते रहे हैं. उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध विंध्याचल मंदिर से लेकर तरकुलहा देवी मंदिर तक, बलि प्रथा का चलन रहा है.
अनिमेष बताते हैं कि राजस्थान में गर्म अंगारों पर गोश्त पकाया जाता था. जंगली सुअर से लेकर खड खरगोश तक को भी ऐसे ही पकाया जाता था. पौराणिक कथाओं में भी भद्रितक का नाम सामने आया है, जो लगभग कवाब की तरह का ही एक व्यंजन था. भारत में पारसी, यहूदी, डच, फ्रांसीसी और अंग्रेज मांस पकाने के अलग-अलग तरीके लेकर आए. दिलचस्प बात यह है कि भारत आकर हर मांस का मिजाज बदल गया और देसी फ्लेवर का तड़का इसमें लग गया.
भारत में पहले से खाया जाता था मांस, हर डिश पर दिखती है देसी छाप
जैसे भारत में हैदराबाद की बिरयानी बेहद पसंद की जाती है. हैदराबाद का ही हलीम और दाल्चा गोश्त एक जमाने में नवाबी किचन का हिस्सा था. लखनऊ के आसपास के क्षेत्रों में काकोरी कबाबू, दम पुख्त पॉपुलर रहा है. यह तथ्यात्मक तौर पर गलत है कि मुगल मांस कल्चर लेकर आए थे.
कैसे बढ़ा मटन का चलन?
अनिमेष मुखर्जी बताते हैं कि राममोहन राय ने मुस्लिम बावर्चियों का बनाया भोजन खाना शुरू किया. उसके बाद उनके मित्र द्वारकानाथ टैगोर ने अपनी दावतों में इसे अपनाया. इन लोगों ने भैंसे के मांस का बहिष्कार किया. बकरा काली को चढ़ाया जाता था, तो सबसे लोकप्रिय वही रहा. चूंकी वे समाज के प्रभावशाली वर्ग से आते थे, इसलिए धीरे-धीरे बंगाल में भी ऐसी परंपरा पनपने लगी. बाद के सालों में मटन ज्यादा लोकप्रिय होने लगा. बकरे के मीट को लोग प्रसाद के तौर पर खाते थे. देश के बाकी हिस्सों में भी इसे अपनाया जाने लगा. कई हिंदू मंदिरों में भी बलि प्रथा चलती रही, जिसमें लोग भैंस के बछड़े और बकरे की बलि देते थे.
भारत में चिकन नहीं था लोगों की पहली पसंद
भारत में चिकन खाने का दौर बहुत बाद में शुरू हुआ. लोग चिड़िया तो खाते थे लेकिन मुर्गा नहीं. मुर्गे के मांस को लोग उपेक्षित समझते थे. हिंदू जातियां मुर्गा और अंडा दोनों कम खाती थीं.1980 के दशक में मटन 18 से 20 रुपये प्रति किलो बिकता था. मुर्गियां इससे भी सस्ते में बिकती थीं. साल 1990 में उदारवाद का दौर शुरू हुआ और यही दौर वैश्वीकरण का भी रहा. तब तक मटन 45 से 50 रुपये प्रति किलो तक हो गया. एक तबका जो मटन अफोर्ड नहीं कर सकता था, उसने मुर्गा खाना शुरू किया.
सोचकर देखिए साल 2018 तक मटन 580 रुपये किलो तक बिकने लगा. अब तो मटन 1000 से 1200 रुपये प्रति किलो बिकता है. ऐसे में सबकी जेब मटन खाने की इजाजत नहीं देती. ज्यादातर ढाबों पर भी मटन कम, अब चिकन ज्यादा बिकता है. मछली भी लोगों को लुभाती रही है. मछली को कई जगह धार्मिक उत्सवों में भी अनिवार्य रूप से बनती है.
भले ही मुगलों और मुस्लिम शासकों को नए जमाने में शाकाहारियों का एक तबका कोसता हो लेकिन सच्चाई ये है कि मटन, मुगलों के आने से बहुत पहले ही मांसाहारियों के बीच लोकप्रिय था. इसका जायका, आम हिंदुस्तानी सदियों से ले रहा है.
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