Bharat ratna Jannayak Karpoori Thakur: बिहार में एक शख्सियत हुए जो न सिर्फ दूरदर्शी थे, बल्कि बेहतर वक्ता भी थे. एक कहानी सामने आती है... बात आजादी के समय की है. कहानी के मुताबिक, बिहार की राजधानी पटना में एक सिनेमा हॉल के पास वे छात्रों की बड़ी भीड़ को संबोधित कर रहे थे. इस दौरान उन्होंने जो कहा वो आज भी याद किया जाता है. जिस शख्सियत की हम बात कर रहे हैं, उन्होंने कहा कि हमारे देश की आबादी इतनी अधिक है कि केवल थूक फेंक देने से अंग्रेजी राज बह जाएगा. दरअसल, वे अपने बयान के जरिए देशवासियों को जगाना चाहते थे.
ये पहली बार नहीं था, जब इस शख्सियत ने अपने बयान से जनता को जगाना चाहा था. इसके बाद भी उन्होंने कई ऐसे ही बयान दिए. जैसे- एक बार उन्होंने कहा- बेशक... संसद के विशेषाधिकार कायम रहें, लेकिन आरक्षण बढ़ता रहे, वो भी आवश्यकतानुसार, साथ ही जनता के अधिकार भी, क्योंकि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे तो जनता आज नहीं तो कल संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी.
इसके अलावा, उनका एक और नारा याद किया जाता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि सौ (100) में नब्बे (90) शोषित हैं, शोषितों ने ललकारा है. धन, धरती और राजपाट में 90 हमारा है. अधिकार चाहो तो लड़ना सीखो, पग-पग पर अड़ना सीखो और अगर जीना है तो मरना सीखो. हम आपको बताते हैं कि जिस शख्सियत की हम चर्चा कर रहे हैं, उनका नाम कर्पूरी ठाकुर है. भारत सरकार ने कर्पूरी ठाकुर को मरणोप्रांत भारत रत्न देने का ऐलान किया है.
केंद्र सरकार ने मंगलवार (23 जनवरी) को घोषणा की कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया जाएगा. ये ठाकुर का जन्म शताब्दी वर्ष है, जिन्हें 'जननायक' या लोगों के नेता के रूप में भी जाना जाता है. बिहार के प्रमुख राजनीतिक दलों में शामिल जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियां हमेशा से कर्पूरी ठाकुर के लिए भारत रत्न की मांग की थी, जिसे अब पूरा कर दिया गया है. कहा जाता है कि कर्पूरी ठाकुर समाज के सबसे वंचित वर्गों के लिए सम्मान, आत्मसम्मान और विकास को सुरक्षित रखने के संघर्ष के लिए जाने जाते हैं.
कर्पूरी ठाकुर (24 जनवरी 1924 से फरवरी 17 1988) का राजनीतिक जीवन बेहद सरल रहा है. शायद इसी कारण दो बार मुख्यमंत्री और एक बार डिप्टी सीएम होने के बावजूद उनका अपना घर नहीं था. उनकी साधारण शख्सियत की एक और कहानी जान लीजिए. 1952 में जब वे पहली बार विधायक बने, तो उन्हें ऑस्ट्रिया के आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल के लिए चुना गया था. उसके पास कोट (ब्लेजर) नहीं था, तब उन्हें अपने एक दोस्त से फटा हुआ कोट मांगना पड़ा, जो थोड़ा फटा था लेकिन ठीक था. कहा जाता है कि जब यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप टीटो की कर्पूरी ठाकुर के फटे कोट पर पड़ी तो उन्होंने नया कोट उपहार में दिया था.
कर्पूरी ठाकुर नाई जाति से थे, इसके बावजूद वे बिहार में पिछड़ी जाति के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरने में कामयाब रहे. कहा जाता है कि जब वे मुख्यमंत्री थे, तब उनकी उनके क्रांतिकारी नीतिगत निर्णयों का ऐसा प्रभाव पड़ा, जिसकी गूंज आज भी सुनाई देती है. ठाकुर को उनके कई निर्णयों के लिए जाना जाता है. जैसे- मैट्रिक परीक्षाओं के लिए अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रूप में हटाना, शराब पर प्रतिबंध, सरकारी अनुबंधों में बेरोजगार इंजीनियरों के लिए सामान व्यवहार, जिसके माध्यम से उनमें से लगभग 8,000 को नौकरियां मिलीं. कहा जाता है कि ये वो समय था, जब बेरोजगार इंजीनियर नौकरियों के लिए नियमित विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. इनमें एक प्रदर्शनकारी नीतीश कुमार थे.
जून 1970 में, बिहार सरकार ने मुंगेरी लाल आयोग नियुक्त किया, जिसने फरवरी 1976 की अपनी रिपोर्ट में 128 पिछड़े समुदायों का नाम दिया, जिनमें से 94 की पहचान सबसे पिछड़े के रूप में की गई. इस दौरान कर्पूरी ठाकुर की जनता पार्टी की सरकार थी. मुंगेरी लाल आयोग की रिपोर्ट की सिफारिशों को कर्पूरी सरकार ने लागू किया. 'कर्पूरी ठाकुर फॉर्मूला' ने 26% आरक्षण प्रदान किया, जिसमें से ओबीसी को 12% हिस्सा मिला, ओबीसी के बीच आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को 8%, महिलाओं को 3% और उच्च जातियों के गरीबों को 3% मिला.
हालांकि, 'कर्पूरी ठाकुर फॉर्मूला' उन्हें महंगा पड़ा और उनकी सरकार गिर गई. न सिर्फ कर्पूरी ठाकुर की सरकार गई, बल्कि उन्हें ऊंची जातियों का बड़ा विरोध देखने को मिला. कहा जाता है कि इस दौरान उन्हें आपत्तिजनक नारेबाजी का भी सामना करना पड़ा था, जिसमें कहा गया कि 'कर्पूरी कर पूरा, छोड़ गद्दी, धर उस्तुरा यानी कर्पूरी... अपना काम खत्म करो, कुर्सी से हटो और जाओ उस्तरा पकड़ो. बता दें कि उस्तरा कर्पूरी की नाई जाति के पारंपरिक पेशे से संंबंधित था.
कर्पूरी ठाकुर का जन्म समस्तीपुर जिले के पितौंझिया गांव में हुआ था. ये उनकी शख्सियत ही थी कि अब पितौंझिया गांव कर्पूरी ठाकुर के नाम से जाना जाता है. अब इस गांव को कर्पूरी गांव कहा जाता है. जानकारी के मुताबिक, कर्पूरी ठाकुर ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और इसके लिए जेल भी भेजे गए. कर्पूरी ठाकुर पहली बार 1952 में विधायक चुने गए. ठाकुर 5 मार्च 1967 से 28 जनवरी 1968 तक बिहार के शिक्षा मंत्री भी रहे थे. वे दिसंबर 1970 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के साथ बिहार के मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनकी सरकार छह महीने बाद गिर गई. दोबारा 1977 में ने बिहार के मुख्यमंत्री बने.