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Dadasaheb Phalke Birth Anniversary: जब पहली हीरोइन की तलाश में रेड लाइट एरिया पहुंचे थे दादा साहब फाल्के

Dadasaheb Phalke Birth Anniversary: हिंदी फिल्मों की नींव रखने वाले महान शख्सियत दादा साहब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र के नासिक में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उन्होंने 19 सालों के फिल्मी करियर में 121 फिल्मों का निर्माण किया, जिनमें 26 शॉर्ट फिल्में भी शामिल थीं.

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Edited By: Babli Rautela
Dadasaheb Phalke Birth Anniversary
Courtesy: Social Media

Dadasaheb Phalke Birth Anniversary: 30 अप्रैल को भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के की जयंती मनाई जाती है. हिंदी फिल्मों की नींव रखने वाले इस महान शख्सियत का जन्म 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र के नासिक में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनका असली नाम धुंडिराज गोविंद फाल्के था, लेकिन बाद में वे दादा साहब फाल्के के नाम से विख्यात हुए. उन्होंने 19 सालों के फिल्मी करियर में 121 फिल्मों का निर्माण किया, जिनमें 26 शॉर्ट फिल्में भी शामिल थीं.

दादा साहब ने अपनी पढ़ाई बड़ौदा के कला भवन से की, जहां उन्होंने मूर्तिकला, चित्रकला, इंजीनियरिंग और फोटोग्राफी जैसे विषयों में गहरी पकड़ बनाई. हालांकि, निजी जीवन में पत्नी और बेटे के निधन के बाद उन्होंने फोटोग्राफी से दूरी बना ली. लेकिन किसे पता था कि यह दुःख उन्हें भारत में सिनेमा की शुरुआत की ओर ले जाएगा.

'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' से मिली प्रेरणा

साल 1910 में फ्रेंच मूक फिल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ देखने के बाद दादा साहब फाल्के के भीतर एक क्रांति सी जाग उठी. उन्होंने ठान लिया कि वे भी धार्मिक और पौराणिक भारतीय कथाओं को फिल्म के माध्यम से जीवंत करेंगे. यही से जन्म हुआ भारत की पहली फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ का.

1913 में ‘राजा हरिश्चंद्र’ के निर्माण की राह आसान नहीं थी. उस दौर में किसी महिला का फिल्म में काम करना सामाजिक रूप से अस्वीकार्य माना जाता था. एक्ट्रेस की तलाश में वे रेड लाइट एरिया तक पहुंचे, लेकिन वहां की महिलाओं ने उन्हें यह कहकर मना कर दिया कि, 'इतना पैसा तो हमें एक रात में ही मिल जाता है.'

अन्ना सालुंके ने निभाया था 'तारामती' का किरदार

एक दिन जब दादा साहब एक ढाबे पर चाय पी रहे थे, तो उनकी नजर एक बावर्ची अन्ना सालुंके पर पड़ी, जिसके हाव-भाव और कोमलता उन्हें स्त्री चरित्र के लिए उपयुक्त लगे. उन्होंने उसे ही राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती का किरदार सौंपा. फिल्म का कुल बजट मात्र 15,000 रुपये था.

महिलाओं के अभिनय में रुचि न लेने के चलते दादा साहब कई बार खुद साड़ी पहनकर पुरुष कलाकारों को महिला किरदार निभाने का प्रशिक्षण देते थे. यह उनके समर्पण और जुनून का जीवंत प्रमाण है. राजा हरिश्चंद्र के बाद दादा साहब ने ‘मोहिनी भस्मासुर’ (1913), ‘सत्यवान सावित्री’ (1914), ‘लंका दहन’ (1917), ‘श्री कृष्ण जन्म’ (1918) और ‘कालिया मर्दन’ (1919) जैसी ऐतिहासिक फिल्में बनाईं. उनकी अंतिम मूक फिल्म ‘सेतुबंधन’ थी जबकि आखिरी बोलती फिल्म ‘गंगावतरण’ थी.