यूपी की सियासत में दो 'लड़के' छाए हुए थे. पहले चरण की वोटिंग से लेकर आखिरी चरण तक दोनों कई जगह साथ आए. ये लड़के कोई और नहीं अखिलेश यादव और राहुल गांधी हैं. एक ने कांग्रेस की कमान संभाली है, एक ने समाजवादी पार्टी की. दोनों को भरोसा था कि इस बार तो नरेंद्र मोदी सरकार की विदाई तय है. लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है. एग्जिट पोल के आकड़ों पर अगर ध्यान दें तो उत्तर प्रदेश की 72 सीटों में से करीब 8 से 12 सीटें ही इंडिया गठबंधन को मिल रही हैं. वहीं बीजेपी को 72 में से 67 सीटें मिल रही हैं. जबकि बहुजन समाज पार्टी के ज्यादा से ज्यादा एक सीटें हासिल करती नजर आ रही है.
लोकसभा के एग्जिट पोल को देखकर सियासी गलियारों में इस बात की चर्चा है कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के एक साथ चुनावी मैदान में होने के बाद भी लोकसभा के नतीजों में इतना बुरा हाल क्यों है. अखिलेश और राहुल गांधी जिस कॉन्फिडेंस से अपनी जीत के दावे कर रहे थे वो गलत साबित होते क्यों दिख रहा है?
अभी तीन दिन पहले ही राहुल गांधी के साथ वाराणसी पहुंचे अखिलेश यादव यहां तक कह रहे थे कि वे 'क्योटो' (वाराणसी पर तंज) भी जीत रहे हैं. उन्होंने कहा था जनता का गुस्सा सातवें आसमान पर है. यूपी का चुनाव ऐसा चुनाव हो गया है कि भाजपा क्योटो हारने जा रही है.
वहीं एग्जिट पोल सामने आने के बाद हालात खराब होते दिखाई दे रहे हैं. आइए समझतें हैं उन सारे पहलुओं को जिनकी वजह से समाजवादी पार्टी का ये हाल हो गया है.
अखिलेश यादव ने अपनी शुरुआती दौर की राजनीति में माफियाओं से दूरी बना कर चल रहे थे. वह भी एक समय था जब जब मुख्तार परिवार को उन्होंने पार्टी में घुसने से मना कर दिया था. उस दौर में मुख्तार अंसारी की पूर्वी यूपी में तूती बोलती थी. कई सीटों पर उसका प्रभाव भी था. जब उसका अच्छा समय चल रहा था. अखिलेश ने उसको अपनी पार्टी में लेने से इनकार कर दिया था. वहीं जब मुख्तार की स्थिति बीजेपी की सरकार में एकदम से खराब हो गई और उसकी खुद भी इस दुनिया में नहीं रहा, तब अखिलेश को उसके लिए हमदर्दी जाकी. वे उसके मातामपुर्सी में पहुंचे. बल्कि, उसके भाई अफजाल अंसारी को टिकट भी दिया. इन सारी बातों का जनता में संदेश ये गया कि एक तरफ योगी आदित्यनाथ प्रदेश से माफियाराज को खत्म करने में लगे थे. वहीं दूसरी तरफ अखिलेश ऐसे लोगों को अश्रय दे रहे हैं. यही नहीं मुख्तार की मौत पर समाजवादी पार्टी की आईटी सेल ने उसे शहीद बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
अयोध्या का राम मंदिर बीजेपी के लिए ट्रंप कार्ड की तरह इस्तेमाल हुआ. कम से कम वोटर तो यही मानते हैं. वहीं राम मंदिर उद्घाटन में न जाकर उन्होंने खुद को हिंदुओं से अलग एक पार्टी बना लिया था. अखिलेश उस समय भी सजग नहीं हुए जब उनकी ही पार्टी के विधायकों ने विधानसभा में राम मंदिर उद्घाटन के धन्यवाद प्रस्ताव में अपनी पार्टी से हटकर सरकार के समर्थन में वोटिंग किया था.
गठबंधन के बाद तो काफी समय तक समझौता ही नही हो पाया था. काफी दिनों के बाद शेयरिंग सीटों पर समझौता हुआ. इस बीच पहले चरण के चुनाव से पहले तक दोनों ने मात्र एक प्रेस कान्फ्रेंस की थी. इतना ही नहीं, दोनों नेताओं की संयुक्त रैली और सभाएं भी इतनी कम मात्रा में हुईं कि आम जनता को यह पता नहीं चला होगा कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी एक साथ चुनाव लड़ रही है.