Lok Sabha Elections 2024: लोकसभा चुनाव 2024 में मतदान की तारीखों के नजदीक आते-आते देश के विभिन्न राज्यों में नेताओं के दल बदलने की गतिविधियां तेज हो गई हैं. अपना नफा- नुकसान देखकर नेताजी फटाफट दल बदल रहे हैं. दल बदल शब्द से विद्रोह, असंतोष और किसी व्यक्ति के द्वारा पार्टी से की गई बगावत का संकेत मिलता है. राजनीतिक परिदृश्य में जब एक राजनीतिक दल का सदस्य अपना दल छोड़कर दूसरे दल में शामिल होता है तो यह दल बदल कहताला है.
वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दल-बदल विरोधी कानून’ पारित किया गया. साथ ही संविधान की दसवीं अनुसूची जिसमें दल-बदल विरोधी कानून शामिल है को संशोधन के माध्यम से भारतीय से संविधान जोड़ा गया. इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में ‘दल-बदल’को समाप्त करना था, जो कि 1970 के दशक से पूर्व भारतीय राजनीति में काफी प्रचलित थी.
भारत की राजनीति में दल-बदल नया नहीं इसका इतिहास काफी पुराना है. भारत में दल-बदल की वजह से बहुत बार राजनीतिक अस्थिरता देखने को मिली है. राजनीतिक और प्रशासनिक अस्थिरता का माहौल देखने के लिए मिला है. भारतीय राजनीति में 'आया राम गया राम' का नारा 20 वीं सदी के छठे दशक में विधायकों के लगातार दल-बदल की पृष्ठभूमि में ही बना था. दल बदल के लिए यह पंक्ति देश में बहुत चर्चित है.
अगर भारत में दल बदल की बात करें तो यह केंद्रीय विधायिका के दिनों से शुरू होता है जब केंद्रीय विधायिका के एक सदस्य श्याम लाई नेहरू ने कांग्रेस पार्टी छोड़कर अपनी निष्ठा ब्रिटिश पक्ष के लिए बदल ली थी. दल - बदल का एक और उदाहरण 1937 में देखने के लिए मिला. उस समय मुस्लिम लीग की टिकट पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए हाफिज मोहम्मद इब्राहिम दल बदल कर कांग्रेस में शामिल हो गए.
20वीं सदी के छठे दशक में विचारधारा की बजाए अन्य वजहों के चलते नेताओं ने दल बदले. चाह्वाण कमेटी की रिपोर्ट (1969) के अनुसार चौथे लोकसभा के बाद मार्च 1967 और फरवरी 1968 की छोटी अवधि के बीच राज्यों में विधायकों ने बड़े पैमाने पर अपनी दलीय निष्ठा बदल ली. पहले और चौथे लोकसभा चुनाव के बीच दो दशक की अवधि में दल बदल के कुल 542 मामले सामने आए. इसमें से 438 दल-बदल अकेले 12 महीनों में हुए.आज दल-बदल के मामलों में सत्ता की चाहत ने अहम भूमिका निभाई है. देश में इस तरह से दल-बदल के बढ़ते मामलों को रोकने के लिए कानून बनाने पर चर्चा शुरू हुई.
- कोई सदस्य सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट देता है.
- दल-बदल विरोधी कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित किया जा सकता है यदिः कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है.
- छह महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है
- एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है।
कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है.
- कानून के अनुसार, सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने संबंधी निर्णय लेने की शक्ति है.
- यदि सदन के अध्यक्ष के दल से संबंधित कोई शिकायत प्राप्त होती है तो सदन द्वारा चुने गए किसी अन्य सदस्य को इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार है.
इस कानून में कुछ ऐसी विशेष परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, जिनमें दल-बदल पर भी अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकेगा. दल-बदल विरोधी कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय करने की अनुमति दी गई है बशर्ते कि उसके कम-से-कम दो-तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों. ऐसे में न तो दल-बदल रहे सदस्यों पर कानून लागू होगा और न ही राजनीतिक दल पर. इसके अलावा सदन का अध्यक्ष बनने वाले सदस्य को इस कानून से छूट प्राप्त है.
विलय को लेकर समस्या : इस कानून में प्रावधान है कि दसवीं अनुसूची का नियम 4 विलय से जुड़े मामलों में सदस्यों को अयोग्य ठहराए जाने से कुछ हद तक राहत देगा, लेकिन कानून में कुछ खामियां भी हैं. प्रवधान एक राजनीतिक दल के सदस्य को ऐसी स्थिति में अयोग्यता से बचाता है, जहां मूल राजनीतिक दल ने दूसरे दल में विलय किया हो. इसके लिए जरूरी है कि संबंधित राजनीतिक दल के कम से कम दो-तिहाई विधायक विलय के लिए सहमत हुए हों. यहां कमी यह है कि अयोग्यता से राहत दल-बदल के पीछे के कारण के बजाए सदस्यों की संख्या पर आधारित है. आम तौर पर सदस्य मलाईदार पद या मंत्री पद के लिए दूसरी पार्टी में शामिल होते हैं. संभव है कि दो-तिहाई सदस्य इसी कारण के लिए विलय पर सहमत हुए हों.
निष्कासन : दल-बदल विरोधी कानून की बड़ी कमी यह है कि इसमें राजनीतिक दल द्वारा सदस्य के निष्कासन की स्थिति से निपटने के लिए कोई प्रविधान नहीं किया गया है. राजनीतिक दल के पास पार्टी के संविधान के तहत सदस्य को निष्कासित करने का अधिकार है, लेकिन सदस्य को पार्टी संविधान के तहत कोई अधिकार नहीं है.
स्पीकर को व्यापक अधिकार : इस कानून में दसवीं अनुसूची का नियम 6 सदन के अध्यक्ष को दलबदल के
मामले में सदस्य की अयोग्यता को लेकर व्यापक अधिकार देता है. यहां इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि अध्यक्ष अब भी उस पार्टी का सदस्य है, जिसने उसे अध्यक्ष पद के लिए नामित किया है. ऐसे में यह उम्मीद करना मुश्किल है कि अध्यक्ष अपनी राजनीतिक पार्टी के मामले में निष्पक्ष होकर काम करेगा. कानून के अनुसार इस मामले में अध्यक्ष का फैसला अंतिम होता है लेकिन अध्यक्ष अपना फैसला सुनाने में कितना समय लेगा इसके लिए कोई सीमा नहीं तय की गई है.
पार्टी अदालत जा सकती है लेकिन इसके लिए जरूरी है कि अध्यक्ष का फैसला आ गया हो. चुनाव सुधारों पर दिनेश गोस्वामी कमेटी और चुनाव आयोग ने सिफारिश की है कि दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता के मुद्दे पर फैसला करने का अधिकार राष्ट्रपति या राज्यपाल को दिया जाए, जो चुनाव आयोग की सलाह पर काम करेगा. हालांकि अब तक, इस सिफारिश को लागू नहीं किया गया है.