क्या भारत के विभाजन को टाला जा सकता था? या फिर विभाजन यह अपरिहार्य और अनिवार्य था? इतिहास के पन्नों को जब भी हम उलटते हैं यह सवाल हमारे सामने आता है. इन प्रश्नों को लेकर भारतीय इतिहासकारों, पाकिस्तानी इतिहासकारों और अंग्रेज इतिहासकारों के विचारों में मतभेद देखने के लिए मिलता है. भारत में विभाजन को एक ‘महान दुर्घटना’माना जाता है. इसे अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति और मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिकता का स्वाभाविक चरण माना जाता है.
भारती. इसके लिए अंग्रेजों को जितना जिम्मेदार मानते हैं उससे कहीं ज्यादा मुस्लिम लीग को जिम्मेदार मानते हैं. वहीं, पाकिस्तान में इस विभाजन को पूर्णतया तर्कसंगत तथा अनिवार्य माना जाता है. भारत में जब भी बंटवारे की बात होती है तो सारा गुस्सा मुस्लिम लीग पर फोड़ दिया जाता है और उसको देश के बंटवारे के लिए सबसे बड़ा खलनायक बताया जाता है. ऐसे में आज हम आपको मुस्लिम लीग के बारे में बताने जा रहे हैं कि आखिर इसका गठन क्यों हुआ था और आजादी से लेकर अलग देश की मांग तक मुस्लिम लीग ने कौन- कौन से काम किए. तो आइए शुरू करते हैं.
साल 1905 में अंग्रेजों ने हिंदू-मुसलमानों के आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया. इसके बाद देश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया. 30 दिसंबर,1906 को ढाका के नवाब आगा खां और नवाब मोहसिन-उल-मुल्क के नेतृत्व में भारतीय मुस्लिमों के अधिकारों की रक्षा के लिए मुस्लिम लीग का गठन किया. दिलचस्प बात यह है कि जिस ढाका में इसकी स्थापना हुई थी और मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग की थी, वही इलाका अब बांग्लादेश के तौर पर दूसरा देश बन चुका है. भारत में द्विराष्ट्र का सिद्धांत पहली बार सर सैयद अहमद खां ने दिया था, जो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक भी थे. जिन्ना ने इस विचार को आगे बढ़ाने का काम किया था. शुरुआत में मुस्लिम लीग को ब्रिटिशों द्वारा काफी सहयोग मिला, लेकिन जब इसने स्व-शासन के विचार को अपना लिया, तो ब्रिटिशों से मिलने वाला सहयोग समाप्त हो गया.
मुस्लिम लीग मोटे तौर पर नवाबों, जमींदारों और बुर्जुआ मुसलमानों की पार्टी थी. इसके नाम में मुस्लिम था इसके चलते मुसलमानों की एकमात्र नुमाइंदा होने की बात करने लगी. मुस्लिम लीग के संस्थापकों में ख्वाजा सलीमुल्लाह, विकार-उल-मुल्क, सैयद आमिर अली, सैयद नबीउल्लाह, खान बहादुर गुलाम और मुस्तफा चौधरी शामिल थे. इसके पहले अध्यक्ष सर सुल्तान मुहम्मद शाह थे. भले ही मुस्लिम लीग के लोग यह दावा करते थे कि वह आजादी के लिए लड़ना चाहते हैं, लेकिन सच्चाई यह थी कि इस संगठन का उद्देश्य ही अलग देश था.
मुस्लिम लीग ने कहा था कि हमारा उद्देश्य ब्रिटिश सरकार के प्रति मुसलमानों में वफादारी पैदा करना है. सरकार से मुस्लिमों के लिए अधिक अधिकारों को हासिल करना है. दूसरे समुदायों के मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह से निपटना जैसे मकसद इसमें शामिल थे. उसके इन उद्देश्यों के चलते ही ब्रिटिश सरकार को भारत में तेजी से उभर रहे राष्ट्रवाद से निपटने के लिए एक टूल मिला था. इसके बाद 1930 में पहली बार मुस्लिम लीग ने दूसरे मुल्क की स्थापना का प्रस्ताव रख दिया. फिर मुस्लिम लीग ने यह प्रोपेगेंडा शुरू किया कि हिंदू और मुस्लिम अलग-अलग मुल्क हैं. इसलिए अलग देश मुसलमानों के लिए जरूरी है.
मुस्लिम लीग बन चुकी थी इसके बाद सवाल यह उठता है कि आखिर मोहम्मद अली जिन्ना इससे कब जुड़े. तो इसका जवाब है कि इस संगठन से जिन्ना 1913 में जुड़े. शुरुआती दिनों में वह कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों के सदस्य रहे, लेकिन अंत में उन्होंने कांग्रेस छोड़ ही दी. 1940 में पहली बार जिन्ना ने मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में कहा कि हिंदू और मुसलमानों का एक मुल्क में साथ रहना संभव नहीं है. हालांकि इस मांग का मुस्लिम लीग के ही एक गुट ने विरोध किया था. इस गुट का इस बात से इतना विरोध था कि अलग ऑल इंडिया जम्हूर मुस्लिम लीग नाम से नई संस्था बना ली. अंत में इसका विलय कांग्रेस में हो गया था.