लोकसभा चुनाव 2024 में यह साफ हो गया कि अब अपने दम पर मायावती का कोई भी जनाधार नहीं है. उनकी ढीली-ढाली राजनीति सुस्ती ने बहुजन समाज पार्टी (BSP) का बंटाधार कर दिया. जो उनकी पार्टी को नई दिशा दे सकता था, उसी आकाश आनंद को मायावती ने एक बार फिर हाशिए पर धकेल दिया है. लोकसभा चुनाव के नतीजों में जनता ने उन्हें वहीं पहुंचा. बसपा के हाशिए पर जाने की वजह लेकिन आकाश आनंद पर एक्शन नहीं बल्कि अखिलेश यादव एक दांव है.
अखिलेश यादव का 'पिछड़ा दलित अल्पसंख्यक' (PDA) का दांव, मायावती पर भारी पड़ा है. 2012 से पहले मायावती की राजनीति मुस्लिम और दलित गठजोड़ पर आधारित थी. यही उनके कोर वोटर रहे हैं. मायावती की बहुजन राजनीति को अखिलेश यादव ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है. 2019 और 2024 के नतीजे तो इसी ओर इशारा कर रहे हैं.
साल 2019 में अखिलेश यादव और मायावती एक साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़े. मायावती गेस्ट हाउस कांड भूलकर सपा के साथ आ गईं. चुनाव तक 'बूआ और बबुआ' साथ लड़े. इस जोड़ी को यही नाम बीजेपी ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान दिया था. नतीजे आए तो मायावती 10 सीटें जीत गईं. अखिलेश यादव की सपा 5 सीटों पर सिमट गई थी. लेकिन इस बार पीडीए का दांव भारी पड़ा.
मायवती 2024 में इस मुगालते में थीं कि उन्हें अपने दम पर सीटें हासिल हो जाएंगी. उन्होंने यूपी की 80 सीटों पर उम्मीदवार उतार दिया. कई राज्यों में उन्होंने अपने उम्मीदवार खड़े किए फिर भी मायावती के हिस्से शून्य आया. बसपा का अब कोई भी सासंद नहीं है. अखिलेश के साथ 2019 के नतीजों के तत्काल बाद मायावती ने यह कहकर नाता तोड़ लिया था कि बसपा के वोटर तो सपा के साथ गए, सपा के वोटर बसपा के साथ नहीं आए. इस बार उन्हें, हकीकत का एहसास हो गया है. उनके ज्यादातर उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई.
मायावी के नेतृत्व वाली बसपा का वोट शेयर 2022 के विधानसभा चुनावों की तुलना में 3 फीसदी और घट गया है. 2022 के विधानसभा चुनावों में बसपा का वोट शेयर करीब 12.88 फीसदी था. इस बार यह वोट प्रतिशत घटकर 9.38 पर आ गया है. बसपा एक भी सीट नहीं जीत पाई.
मायावती ने अपनी हार का ठीकरा मुसलमानों पर फोड़ दिया. उन्होंने कहा कि उनकी अपनी जाति के लोगों ने तो साथ दिया लेकिन अल्पसंख्यकों ने नहीं दिया. उन्होंने यूपी के मेरठ से लेकर सिद्धार्थनगर की डुमरियागंज लोकसभा तक, कई मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया लेकिन मुस्लिमों ने उनके उम्मीदवारों को 'वोटकटवा' ही माना.
ऐसा उम्मीदवार जो सिर्फ वोट काटने के लिए चुनाव लड़ता है. मायावती का यह दांव भी फेल हो गया. उन्होंने दलित उम्मीदवारों पर भी भरोसा जताया लेकिन कहीं उन्हें सफलता नहीं मिली. इस बार दलित और मुसलमान दोनों समुदायों ने मायावती को भाव नहीं दिया.
पीडीए मतलब पिछड़ा, दलित और अल्पंख्यक. अखिलेश ने एनडीए की काट में इसी गठबंधन पर काम किया. उन्होंने यादवों की जगह पिछड़ों और दलितों को एकजुट करने पर काम किया. यादव उनके कोर वोटर हैं और अखिलेश को भरोसा था कि वे नरेंद्र मोदी और बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे.
सपा के बारे में यह कहा जाता है कि यह पार्टी मुस्लिम और यादवों के गठजोड़ की पार्टी है. ये दोनों समुदाय, सपा को छोड़कर किसी को नहीं वोट करते. सपा जमकर यादवों को टिकट देती रही है. इस बार सपा ने अपने परिवार के 5 यादवों को छोड़कर किसी यादव को टिकट नहीं दिया. यही फॉर्मूला काम कर गया. सपा ने निषाद, जाटव, मुस्लिम, पासी जैसी जातियों से आने वाले उम्मीदवारों को टिकट दिया था.
अखिलेश ने जातिगत समीकरणों को देखकर टिकट बांटा था, नतीजे भी शानदार रहे. सुल्तानपुर में इसी फॉर्मूले से सपा ने मेनका गांधी जैसे उम्मीदवार को भी करारी हार का सामना करना पड़ा. वहां राम भुआल निषाद जैसे उम्मीदवार ने उन्हें हरा दिया. जब अखिलेश के फॉर्मूले से मोदी मैजिक बेअसर हो गया, तब मायावती कहां टिकतीं? मायावती की जातीय राजनीति 'जाटवों' तक ही सीमति हो गई.
बसपा ने कुल 35 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था. उन्हें उम्मीद थी कि दलित और मुसलमान मिलकर वोट करेंगे लेकिन ज्यादातर ऐसे हैं जिन्हें 50000 वोट भी नहीं पड़े. राज्य में मुस्लिम आबादी 20 फीसदी है, दलित आबादी 21 फीसदी है लेकिन मायावती को वोट महज 9 फीसदी पड़े. देश की 442 लोकसभा सीटों पर बसपा ने उम्मीदवार उतारे लेकिन जीता एक भी नहीं. अगर मायावती अपनी राजनीति नहीं बदलती हैं तो आने वाले दिनों में 'एक थी बसपा' जैसे मीम्स भी बनने लगेंगे.