अवसरवाद राजनीति में बहुत ही प्रचलित शब्द है. जटिल जातिगत गणित के लिए जाना जाने वाला बिहार में कई बाहुबलियों ने अवसर का लाभ उठाकर और अपनी जाति के लोगों के वोट के दम पर कई बार आसानी से चुनाव जीता. इस बार के लोकसभा चुनाव में भी बिहार में दो बाहुबली चर्चा में हैं. अनंत कुमार सिंह और बाहुबली आनंद मोहन सिंह.
बिहार में बाहुबलियों के जीतने की शुरुआत 1990 से होती है. उस समय पूरे बिहार में मोहम्मद शाहबुद्दीन का आतंक हुआ करता था. अपने आतंक के डर से और अपनी जाति के लोगों के वोट के आधार पर उसने 1990 में निर्दलीय चुनाव जीता था. बिहार के पूर्व सीएम लालू यादव से गठबंधन करने के बाद उसके रजनीतिक रसूख का ग्राफ तेजी से बढ़ा. लालू यादव की सरपरस्ती में वह तीन बार सांसद बना.
डॉन का दबदबा ऐसा कि जज का करा दिया था ट्रांसफर
सीवान के इस डॉन का दबदबा कुछ ऐसा था कि डबल मर्डर केस में एक जज ने उसे उम्र कैद की सजा सुनाई थी लेकिन जब वह 2016 में एक मर्डर के एक अन्य मामले में जमानत पर बाहर आया तो मात्र दो दिन के भीतर ही उस जज का जिला न्यायालय से ट्रांसफर कर दिया गया.
हालांकि 2021 में कोरोना से शाहबुद्दीन की मौत के साथ ही उसके साथ आतंक का भी अंत हो गया. जो शाहबुद्दीन लालू यादव का करीबी हुआ करता था उसकी मौत के बाद आरजेडी ने उसके परिवार को बेसहारा छोड़ दिया. शाहबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब ने आरोप लगाया कि मुश्किल घड़ी में लालू यादव ने उनके परिवार का साथ नहीं दिया. इस लोकसभा चुनाव में आरजेडी ने सीवान लोकसभा सीट से हिना की जगह अवध बिहारी चौधरी को उम्मीदवार बनाया है. हालांकि हिना शहाब ने हार न मानते हुए सीवान से निर्दलीय लड़ने का फैसला किया है.
इस बार के लोकसभा चुनाव में बिहार से दो बाहूबली मैदान में
शाहबुद्दीन का अंत भले ही हो गया हो लेकिन बिहार की राजनीति से बाहुबलियों का अंत नहीं हुआ है. इस बार के लोकसभा चुनाव में भी दो बाहुबली चर्चा में हैं एक हैं अनंत कुमार सिंह और दूसरे हैं आनंद मोहन सिंह. अनंत कुमार सिंह जिन्हें उनके चाहने वाले छोटे सरकार कहकर बुलाते थे, हाल ही में 15 दिन की पैरोल पर बाहर आए हैं और जेल से बाहर आते ही उन्होंने अपने इरादे साफ कर दिये हैं. अनंत को कुछ साल पहले ही गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत एक मामले में पटना की अदालत ने 10 साल जेल की सजा सुनाई थी. अनंत के काले दिन 2019 में तब शुरू हुए थे जब उनके घर से अवैध हथियार बरामद हुए थे. चार बार के विधायक रहे अनंत कुमार सिंह पर इसके बाद यूएपीए लगाया गया था.
अनंत ने इसके पीछे राजनीति साजिश बताया था. हालांकि जेल में रहते हुए ही आरजेडी ने अनंत को विधानसभा का टिकट दिया जिसे उन्होंने 65000 से ज्यादा वोटों से जीता था. इसके अलावा दूसरे बाहुबली हैं आनंद मोहन सिंह. आनंद मोहन सिंह पूर्व आरजेडी नेता चेतन आनंद के बेटे हैं. बिहार की शिवहर सीट से उनकी पत्नी लवली आनंद जेडीयू की टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं.
साल 2021 में पटना की स्पेशल कोर्ट ने अवैध हथियार मामले में उन्हें 10 साल की सजा सुना दी. 10 साल की सजा होने के बाद अनंत कुमार सिंह की विधायकी चली गई. वह मोकामा से विधायक थे. हालांकि मोकामा में अनंत का दबदबा कुछ ऐसा था कि उनकी विधायकी जाने पर उनकी पत्नी नीलम देवी ने आरजेडी के टिकट पर उपचुनाव लड़ा और जीत हासिल की लेकिन राजनीति में अवसरवाद की हद देखिए कि जब इस साल फरवरी में नीतीश कुमार ने आरजेडी से गठबंधन तोड़कर भाजपा के साथ जाने का फैसला किया तो नीलम देवी ने नीतीश कुमार के समर्थन में क्रॉस वोटिंग कर दी.
जेल से बाहर आते ही अनंत कुमार सिंह अपने कट्टर दुश्मन और जेडीयू के मुंगेर उम्मीदवार ललन सिंह के समर्थन में उतर आए हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में अनंत की पत्नी नीलम देवी ने मुंगेर सीट पर लंलन सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ा था लेकिन इस बार हवा बदल चुकी है.
अनंत सिंह भूमिहार समुदाय से आते हैं और मुंगेर में लगभग 3.5 लाख भुमिहार मतदाता हैं. जेडीयू के साथ अनंत सिंह कि दोस्ती ने जेडीयू को परेशान कर दिया है. अब बात करते हैं एक और बाहूबली की जिनकी इस बार के लोकसभा चुनाव में खूब चर्चा हो रही है. इनका नाम हैं आनंद मोहन सिंह. पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह का कोसी डिवीजन की सहरसा-सुपौल सीट पर अच्छा खासा प्रभाव है.
नीलम देवी की तरह आनंद मोहन सिंह के बेटे और पूर्व आरजेडी नेता चेतन आनंद ने फरवरी में नीतीश कुमार के पक्ष में क्रॉस वोटिंग की थी. इस बार के लोकसभा चुनाव में जेडीयू ने आनंद मोहन की पत्नी लवली सिंह को शिवहर से टिकट दिया है. सिहोर लोकसभा सीट पर 16 लाख वोटर हैं जिसमें अगड़ी जाती के मतदाता लगभग 17% हैं जिनमें ज्यादातर राजपूत हैं.
आनंद मोहन का न केवल शिवहर में बल्कि कोसी बेल्ट और मिथिलांचल क्षेत्र में भी खासा प्रभाव है. उच्च जाति वोट बैंक में राजपूत की संख्या 4 प्रतिशत है, जो राज्य के कुल वोटों का 12 प्रतिशत है. समय के साथ भले ही बाहूबलियों की प्रासंगिकता कम हो गई हो लेकिन अभी भी बिहार के कुछ क्षेत्रों में बाहुबलियों का दबदबा कायम है.