राजनीति में चाचाओं से ज्यादा वफादार हैं बुआ', UP से बंगाल तक, हीरो बने भतीजे

अभिषेक बनर्जी और आकाश आनंद, दो भतीजे, अपनी-अपनी पार्टी की विरासत संभालने के लिए तैयार हैं. ममता बनर्जी ने अपने भतीजे को संवारा तो मायावती ने पार्टी ही सौंप दी. बुआ तो भतीजों से भरोसा करती हैं लेकिन सियासी चाचाओं की भूमिका संदिग्ध है. कैसे, हम समझाते हैं.

फोटो क्रेडिट- इंडिया डेली
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देश की राजनीति में कई 'भतीजे' ऐसे हैं जिनके चाचाओं ने उनके लिए परेशानियां खड़ी कर दीं. चाचा, अपने भतीजों के लिए वफादार नहीं रहे लेकिन बुआओं ने जमकर प्यार लुटाया. 90 के दशक से लेकर अब तक के 3 दशकों के सफर को देखें तो ऐसे कई उदाहरण दिखेंगे. बाला साहेब ठाकरे से लेकर पशुपति पारस तक, ऐसे कई चाचा हैं, जिन्होंने भतीजे को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका.

2000 के दशक में बाला साहेब ठाकरे ने यह जता दिया कि भले ही उनके भतीजे राज ठाकरे में उन्हीं की तरह तेवर हों लेकिन पार्टी की विरासत उनके बेटे उद्धव ठाकरे ही संभालेंगे. राज ठाकरे को महाराष्ट्र की जनता, बाल ठाकरे का असली वारिस समझ रही थी. उनके चेहरे पर वही तेवर थे, उनका अंदाज भी वही था और उत्तर भारतीयों के प्रति उनकी राजनीति भी वैसी ही थी. उद्धव ठाकरे को धीरे-धीरे बाल ठाकरे आगे करते गए, साल 2006 में नाराज होकर राज ठाकरे ने पार्टी छोड़ दी. 

जब शिवपाल की आंखों की किरकिरी बने अखिलेश यादव
ऐसा नहीं है कि ये पहला मामला था. जब विरासत सौंपने की बात आती है तो राजनीतिक पिताओं ने अपनी विरासत, सिर्फ अपने बेटे को दी है, भतीजे को नहीं. एक वक्त था, जब समाजवादी कुनबे में कलह मची थी और चाचा शिवपाल यादव, भतीजे अखिलेश पर भड़के हुए थे. 2012 में जैसे ही अखिलेश को सत्ता मिले,  शिवपाल नाराज हो गए. 

शिवपाल, मुलायम का असली उत्तराधिकारी खुद को समझते थे लेकिन अखिलेश को मुलायम ने सत्ता दी. 2016 में तो विवाद अपने चरम पर पहुंच गया. सत्ता लेने के लिए अखिलेश मुलायम सिंह तक से लड़ गए, उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से हटा दिया. शिवपाल ने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी तक बना डाली. अब दोनों एक बार फिर एकसाथ आ गए हैं लेकिन वफादारी तो सवालों के घेर में हमेशा रहेगी.

जब चाचा ने भतीजे से छीन ली पूरी पार्टी

राम विलास पासवान के भाई पशुपति पारस ने राजनीतिक विरासत के चलते अपने भतीजे और भाभी से दुश्मनी मोल ले ली. राम विलास पासवान ने साल 2000 में लोक जनशक्ति पार्टी बनाई थी, उसे उनकी मौत के बाद शिवपाल ने भतीजे से छीन ली. 2021 में पशुपति पारस ने चिराग पासवान को पार्टी से बाहर की राह दिखा दी. अब चिराग NDA के करीबी हुए तो पशुपति पारस छटपटाने लगे. चाचा, ने राजनीति में भतीजे पर जरा भी दया नहीं दिखाई, मंत्रालय लिया, जिस घर में रामविलास रहते थे, उसे भी हासिल कर लिया.

जब चाचा के बेटी प्रेम ने, भतीजे को बनाया बागी

सिर्फ यही नहीं, शरद पवार और अजित पवार के मामले को देखेंगे तो यही लगेगा. यहां चाचा तो भतीजे पर गलतियों के बाद भी मेहरबान रहे लेकिन भतीजा ही पार्टी लेकर निकल गया. अजीत पवार को लगता रहा कि कि चाचा, उन्हें ही नेशलनिस्ट कांग्रेस पार्टी की कमान सौंपेंगे लेकिन शरद पवार बेटी सुप्रिया सुले का मोह नहीं छोड़ पाए. चाचा और भतीजे की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची. चुनाव चिह्न के लिए भी मारा मारी हुई. यहां न चाचा भतीजे के लिए वफादार रहे, न भतीजा ही चाचा के लिए.

सियासी बुआ भतीजों के लिए ज्यादा हैं वफादार, कैसे, देख लीजिए दो मामले- 

ममता बनर्जी और अभिषेक बनर्जी


ममता बनर्जी के भतीजे हैं अभिषेक बनर्जी. वह डायमंड हार्बर क्षेत्र से सांसद हैं और तृणमूल कांग्रेस के महासचिव हैं. ममता बनर्जी अब पार्टी के बड़े फैसलों में उन्हें आगे करती हैं. वह खुद भी बेहद सक्रिय हैं और अभिषेक बनर्जी की मजबूत नींव तैयार कर रही हैं. अभिषेक बनर्जी, केंद्र की सत्तारूढ़ मोदी सरकार के लिए वैसे ही तेवर रखते हैं, जैसे ममता के हैं. वे मनी लॉन्ड्रिंग से जुड़े एक केस में ईडी की रडार पर हैं लेकिन उन्हें बचाने के लिए ममता बनर्जी दीवार बनकर खड़ी हैं.

मयावती और अभिषेक आनंद

बहुजन समाज पार्टी (BSP) के चीफ मायावती के भतीजे हैं आकाश आनंद. वे मायावती की विरासत के सही उत्तराधिकारी हैं. मायावती ने अब अपनी पार्टी की बागडोर उन्हें सौंप दी है. मायावती एक तरफ जहां अब सिर्फ सोशल मीडिया तक सिमट गई हैं, आकाश आनंद जमीन पर जाते हैं और बसपा के लिए काम करते हैं.

उनकी भूमिका बसपा के राष्ट्रीय संयोजक की है. पार्टी की नीतियों से जुड़े फैसले वे लेने लगे हैं. वे योगी से लेकर मोदी सरकार तक से कड़े सवाल पूछते हैं. दिसंबर 2023 में उन्होंने आधिकारिक तौर पर ऐलान भी कर दिया कि अब पार्टी की कमान उन्हीं के हाथ में रहेगी.

राजनीति में जहां चाचाओं ने भतीजों के लिए राह मुश्किल की, वहीं मायावती और ममता बनर्जी जैसी बुआओं ने भतीजों की राह में फूल बिछा दिए. सियासत में चाचाओं से ज्यादा वफादार बुआएं निकलीं.