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खुशी नहीं दुर्गा पूजा पर गम में डूब जाते हैं संथाल परगना के आदिवासी, आखिर क्यों? जानें

इस त्योहार पर 10 दिनों तक मां दुर्गा के अलग-अलग रूपों की पूजा की जाती है. हिंदू दुर्गा पूजा को बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाते हैं, लेकिन संथाल आदिवासी लोग दुर्गा पूजा पर शोक व्यक्त करते हैं. ऐसा क्यों है यह किस्सा भी बड़ा ही रोचक है.

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Edited By: India Daily Live
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Courtesy: @VivanVatsa

Mahishasura Vadh: दुर्गा पूजा हिंदुओं के एक प्रमुख त्योहारों में से एक है. दस दिनों तक मनाया जाने वाला यह त्योहार लगभग पूरे भारत में मनाया जाता है. यह त्योहार आश्विन माह में मनाया जाता है. मुख्य रूप से बंगाल, असम, झारखंड, ओडिशा और अन्य पूर्वी और पश्चिमी राज्यों में मनाए जाने वाले इस त्योहार पर 10 दिनों तक मां दुर्गा के अलग-अलग रूपों की पूजा की जाती है. हिंदू दुर्गा पूजा को बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाते हैं, लेकिन संथाल आदिवासी लोग दुर्गा पूजा पर शोक व्यक्त करते हैं. ऐसा क्यों है यह किस्सा भी बड़ा ही रोचक है.

मान्यता है कि महिषासुर के आतंक से पूरे देवलोक में त्राहिमाम हो गया था. उसके संहार के लिए मां दुर्गा को 10 भुजा धारी चंडी का रूप धारण करना पड़ा था. संधाली आदिवासी मानते हैं कि महिषासुर उनके इष्ट और पूर्वज हैं जिन्हें मां दुर्गा ने छल से मारा था. यही कारण है कि संथाल परगना के दशहरा मेला में विजयादशमी के दिन संथाल आदिवासी पूरे सैनिक सज्जा वाले लिबास में पहुंचते हैं और सांकेतिक रूप से अपना आक्रोश व्यक्त करते हैं. संथालियों का यह भी कहना है कि महिषासुर का असली नाम महिषा सोरेन है.

आक्रोश से बचने के लिए मेले में होते हैं खास इंतजाम
संथाल परगना के बलबड्डा में पिछले दो सौ वर्षों से दशहरा मेले का आयोजन किया जाता है. संथाल आदिवासियों के आक्रोश से बचने के लिए मेले में सुरक्षा के खास इंतजाम किए जाते हैं. आम लोगों के साथ-साथ आदिवासी समाज के लोग यहां बड़ी संख्या  में पहुंचते हैं.

पहले आदिवासी सैनिक लिबास में प्रदर्शन करते हैं और मूर्ति विसर्जन से पहले भीड़ प्रतिमा पंडाल में यह कहते हुए पहुंचती है कि बता-बता मेरी महिषा कहां है. इसके बाद पुजारी काफी समझा-बुझाकर वापस भेजते हैं.

वध नहीं दी गई मुक्ति
संथाल आदिवासियों के आक्रोश को शांत करने के लिए काफी समझाया बुझाया जाता है. पुजारी मनकी तिवारी बताते हैं कि आदिवासी समाज को यह समझाया जाता है कि उनके इष्ट का वध नहीं हुआ है बल्कि उन्हें मुक्ति दी गई है. इसके बाद उन्हें दुर्गा माता का परम प्रसाद देकर वापस भेजा जाता है. गोड्डा जिले का यह प्राचीनतम मेला बलबड्डा में सदियों से आयोजित हो रहा है.

आदिवासियों को दिया जाता है पुरस्कार
मेले में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाली आदिवासी टोली को मेला आयोजन समिति द्वारा पुरस्कृत किया जाता है. स्थानीय पत्रकार प्रेमशंकर मिश्रा बताते हैं कि यह परंपरा काफी पुरानी है, जिसमें आदिवासी अपने इष्ट महिषासुर का वध किए जाने को लेकर सांकेतिक विरोध प्रदर्शन करते हैं. संथाल के ज्यादातर सभी पुराने पंडालों में यह परंपरा आयोजित की जाती है.